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________________ समीचीन धर्मशास्त्र [ ० ६ व्याख्या इन दो कारिकाओं तथा अगली दो कारिकाओं में भी समाधिमरणकं लिये उद्यमी सल्लेखनानुष्ठाताके त्यागक्रम और चर्याक्रमका निर्देश किया गया है। यहाँ वह रागद्वेपादिके त्यागरूपमें कपायसल्लेखना करता हुआ अपने मनको शुद्ध करके प्रिय वचनों द्वारा स्वजन - परिजनों को उनके अपराधोंके लिये क्षमा प्रदान करता है और अपने अपराधोंके लिये उनसे क्षमाकी याचना करता हुआ उसे प्राप्त करता है। साथ ही, स्वयं करे कराये तथा अपनी अनुमोदना में आये सारे पापोंकी बिना किसी छल छिद्रके आलोचना करके पूर्ण महाव्रतोंको मरणपर्यन्तकं लिये धारण करता है और इस तरह समाधिमरणकी परी तय्यारी करता है । शोकं भयमवसादं क्लेदं कालुष्यमरतिमपि हित्वा । सत्वोत्साहमुदीर्य च मनः प्रसाधं श्रुतैरमृतैः ||५||१२६ || '( महाव्रतोंके धारण करनेके बाद ) सल्लेखना के अनुष्ठाताको चाहिये कि वह शोक, भय, विषाद, क्लेश, कलुपता और रतिको भी छोड़ कर तथा बल और उत्साहको उदयमें लाकर -- बढ़ाकर --- अमृतोपम आगम-वाक्योंके ( स्मरण-श्रवण -चिन्तनादि - ) द्वारा चित्तको ( बराबर ) प्रसन्न रक्खे – उसमें लेशमात्र भी अप्रसन्नता न प्राने देवे ।' १६६ व्याख्या - यहाँ सल्लेखना - व्रतके उस कर्तव्यका निर्देश है जिसे महाव्रतोंके धारण करनेके बाद उसे पूर्ण प्रयत्न से पूरा करना चाहिये और वह है चित्तको प्रसन्न रखना । चित्तको प्रसन्न रक्खे बिना सल्लेखनाव्रतका ठीक अनुष्ठान बनता ही नहीं । चित्तको प्रसन्न रखनेके लिये प्रथम तो शोक, भय, विषाद, क्लेश, कलुषता और अरतिके प्रसंगोंको अपनेसे दूर रखना होगा - उन्हें चित्तमें भी स्थान देना नहीं होगा । दूसरे, सत्तामें स्थित अपने बल तथा
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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