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________________ कारिका १०४] सामायिक-समयका कर्त्तव्य १४१ सर्ग आए उसको भी अचलयोग होकर अपने मन-वचन-कायको डाँवाडोल न करके-मौनपूर्वक अपने अधिकार में करें-खुशीसे सहन करें, पीड़ाके होते हुए भी घबराहट-बेचैनी या दीनतासूचक कोई शब्द मुखसे न निकालें।' व्याख्या-यहाँ मौनपूर्वक सामायिकमें स्थित होकर सामायिक-कालमें आए हुए उपसर्गों तथा परीषहोंको समता-भावसे सहन करते हुए जिस अचलयोग-साधनाका गृहस्थोंके लिये उपदेश है वह सब मुनियों-जैसी चर्या है और इसलिए प्रारम्भ तथा परिग्रहसे विरक्त ऐसे गृहस्थ साधकोंको उस समय मुनि कहनाचेलोपसृष्ट मुनिकी उपमा देना-उपयुक्त ही है। अशरणमशुभमनित्यं दुःखमनात्मानमावसामि भवम् । मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिक ॥१४॥१०४॥ ___ 'सामायिकमें स्थित सभी श्रावक इस प्रकारका ध्यान करेंचिन्तन करें कि 'मैं चतुर्गति-भ्रमणरूपी जिस संसारमें बस रहा हूँ वह अशरण है-उसमें अपायपरिरक्षक (विनाशमे रक्षा करनेवाला) कोई नहीं है, ( अशुभ-कारण-जन्य और अशुभ-कार्यका कारण होनेसे ) अशुभ है, अनित्य है, दुःस्वरूप है और आत्मस्वरूपसे भिन्न है, तथा मोक्ष उससे विपरीत स्वरूपवाला है----वह शरणरूप, शुभरूप, नित्यरूप सुखस्वरूप और प्रात्मस्वरूप है ।' व्याख्या-यहां सामायिकमें स्थित होकर जिस प्रकारके ध्यानकी बात कही गई है उससे यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि सामायिक कोरा जाप जपना नहीं है । और इसलिये अरहंतादिका नाम वा किसी मन्त्रकी जाप जपनेमें ही सामायिककी इति-श्री मान लेना बहुत बड़ी भूल है, उसे जितना भी शीघ्र हो सके दूर करना चाहिए।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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