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________________ worm कारिका १८२] सामायिकस्थ गृहस्थ मुनिके समान १३६ . __( न केवल उपवासादि पर्वके दिन ही, किन्तु ) प्रतिदिन भी निरालसी और एकाग्रचित्त गृहस्थ श्रावकोंको चाहिये कि वे यथाविधि सामायिकको बढ़ावें; क्योंकि यह सामायिक अहिंसादि पंचव्रतोंके परिपूरणका-उन्हें अणुव्रतसे महाव्रतत्व प्राप्त करनेका--- कारण है।' व्याख्या-यहाँ पर यह स्पष्ट किया गया है कि सामायिक उपवास तथा एक भुक्तके दिन ही नहीं, बल्कि प्रतिदिन भी की जाती है और करनी चाहिए, क्योंकि उससे अधूरे अहिंसादिक व्रत पूर्णताको प्राप्त होते हैं। उसे प्रतिदिन करनेके लिये निरालस और एकाग्रचित्त होना बहुत जरूरी है। इसकी ओर पूरा ध्यान रखना चाहिये। सामायिकस्थ ग्रहस्थ मुनिके समान सामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि । चेलोपसष्टमुनिरिव गही तदा याति यतिभावम् * १२॥१०२ _ 'सामायिकमें कृष्यादि आरम्भोंके साथ-साथ सम्पूर्ण बाह्याभ्यन्तर परिग्रहोंका अभाव होता है इसलिये सामायिककी अवस्थामें गृहन्थ श्रावककी दशा चेलोपसृष्ट मुनि-जैसी होती है। वह उस दिगम्बर मुनिके समान मुनि होता है जिसको किसी भोले भाईने दयाका दुरुपयोग करके वस्त्र प्रोढ़ा दिया हो और वह मुनि उस वस्त्रको अपने व्रत और पदके विरुद्ध देख उपसर्ग समझ रहा हो।' · व्याख्या-यहाँ सामायिकमें सुस्थित गृहस्थकी दशा बिल्कुल मुनि-जैसी है, इसे भले प्रकार स्पष्ट किया गया है और इसलिए इस व्रतके व्रती श्रावकको कितना महत्व प्राप्त है यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है। अतः श्रावकोंको इस व्रतका यथाविधि आचरण बड़ी ही सावधानी एवं तत्परताके साथ करना चाहिये और उसके * 'मुनिभावं' इति पाठारन्तरम् ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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