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________________ कारिका ६६ ] अष्ट मूलगुण १०७ असावधान बनाती है— चाहे वह पिष्टोदक गुड़ और घातकी आदि पदार्थोंको गला - सड़ाकर रसरूपमें तय्यार की गई हो और या भांग धतूरादिके द्वारा खाने-पीनेके किसी भी रूप में प्रस्तुत हो; क्योंकि मद्यत्यागमें ग्रन्थकारकी दृष्टि प्रमाद-परिहरण की है, जैसाकि इसी ग्रन्थकी अगली एक कारिकामें प्रयुक्त हुए प्रमादपरिहृतये मद्यं च वर्जनीयं इस वाक्यसे जाना जाता है। मांस उस विकृत पदार्थका नाम हैं जो द्वीन्द्रियादि सजीवोंके रसरक्ताविमिश्रित कलेवरसे निष्पन्न होता है और जिसमें निरन्तर सजीवों का उत्पाद बना रहता है— चाहे वह पदार्थ आई हो शुष्क हो या द्रवरूपमें उपस्थित हो । उसके त्याग सहिंसाकी दृष्टि संनिहित है । और मधु, जिसका त्याग यहाँ विहित है, वह पदार्थ है जिसे मधुमक्खिया पुष्पोंसे लाकर अपने छत्ताम संचय करती हैं और जो बाद में प्रायः छत्तोंको तोड़-मरोड़ तथा निचोड़कर मनुष्यों के खानेके लिये प्रस्तुत किया जाता है और जिसके इस प्रस्तुतीकरण में मधुमक्खियोंको भारी बाबा पहुँचती हैं, उनका तथा उनके अण्डे बच्चों का रसादिक भी निचुड़ कर उसमें शामिल हो जाता है और इस तरह जो एक घृणित पदार्थ बन जाता है । 'चौद्र' संज्ञा भी उसे प्रायः इस प्रक्रियाकी दृष्टिसे ही प्राप्त है। इसके त्याग में भी सहिंसाके परिहारकी दृष्टि संनिहित है : जैसा कि अगली उक्त कारिकामें प्रयुक्त हुए 'सहतिपरिहरणार्थं पिशितं क्षौद्रं च वर्जनीयं' इस वाक्यसे जाना जाता है । यहाँ पर एक बात खास तौरसे जान लेनेकी है और वह है अष्टमूलगुणों में पंच अणुव्रतांका निर्देश; क्योंकि अमृतचन्द्र, सोमदेव और देवसेन जैसे कितने ही उत्तरवर्ती आचार्यों तथा कविराज मल्लादि जैसे विद्वानोंने अपने-अपने ग्रन्थों में पंचागु * देखो, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, यशस्तिलक, भावसंग्रह (प्रा० ) और पंचाध्यायी तथा लाटी संहिता |
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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