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________________ कारिका ६० - ६१ ] अपरिग्रहाऽणुव्रत - लक्षण १०१ और 'करण' शब्दका आशय सब ओर से विवाहकार्यको सम्पन्न करना अर्थात् उसमें तन-मन-धनसे पूरा योग देना है। और इसलिये अपने कुटुम्बी तथा आश्रितजनोंका विवाह करना तथा दूसरोंके विवाह में मात्र सलाह-मशवरा अथवा सम्मतिका देना इस व्रत के लिये दोपरूप अथवा बाधक नहीं हैं। 'अनङ्गक्रीड़ा' पके द्वारा उन अंगों तथा उन अंगोंमें काम-क्रीड़ा करनेका निषेध किया है जो मानवोंमें कामसेवा अथवा मैथुनसेवनके लिये विहित नहीं हैं, और इससे हस्तमैथुनादिक-जैसे सभी अप्राकृतिक मैथुन दोषरूप ठहरते हैं । ' इत्वरिकागमन ' पदमें 'इत्वरिका' शब्द उस स्वस्त्रीका वाचक है जो बादको कुलटा अथवा व्यभिचारिणी होगई हो - परस्त्रीका वाचक वह नहीं है; क्योंकि परस्त्री-गमनका त्याग तो मूलव्रत में ही आ गया है तब अतिचारों में उसके पुनः त्यागका विधान कुछ अर्थ नहीं रखता । अपरिग्रहाऽणुव्रत लक्षण धन-धान्यादि - ग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता । परिमित परिग्रहः स्यादिच्छा परिमाण नामाऽपि ॥ १५ ॥ ६१ ॥ 'धन-धान्यादि परिग्रहको परिमित करके — धन-धान्यादिरूप दस प्रकारके बाह्य परिग्रहोंका संख्या- सीमानिर्धारणात्मक परिमाण करके – जो उस परिमाण से अधिक परिग्रहोंमें वांछाकी निवृत्ति हैं उसका नाम 'परिमितपरिग्रह' है, 'इच्छापरिमाण' भी उसीका नामान्तर है दूसरे शब्दों में उसे 'स्थूल-मूर्च्छाविरति', 'परिग्रहपरिमाणव्रत' और 'अपरिग्रहाऽणुव्रत' भी कहते हैं । व्याख्या - यहाँ जिस धन-धान्यादि परिग्रहके परिमाणका विधान है वह बाह्य परिग्रह है और उसके दस भेद हैं, जैसा कि 'परिग्रहत्याग' नामकी दसवीं प्रतिमाके स्वरूपकथनमें प्रयुक्त हुए,
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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