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________________ तृतीय अध्ययन गच्चारियका पात्र और ध्येय मोह-निमेिराऽपहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः । गग-द्वेष-निवत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।।१।१७।। 'मा-तिमिरका यारा हाने पर-निगोह (म मादर्शन)कए ग्रन्धका सभापा पय लथा क्षयोगाम-दशाको प्राप्त होने पर प्रधानमोर करि मोमा माटले. पोर जानाबरालिए नियम के FIR पर होने पर ---मभ्यग्दशनक लाभपवक सम्यग्ज्ञानको प्राप्त हुआ माधुपुरुष-व्यामा ...-की निवृनिके लिये चरगाको --हिमादिनिनि-नया मान्य कारक - अंगीकार करता है ।' व्याख्या--माहाँ शन' और 'चरग' शब्द बिना साथमें किसी विशेषगक प्रना होने पर ना पृध-प्रसंगवश अथवा ग्रन्थाधिकारके वश नायक पद से उपलक्षित है और इसलिए उन्हें क्रमशः सम्यग्नशन तथा सम्यकचारित्रक वाचक समझना चाहिये । सम्यकचारित्रका किसलिये अंगीकार किया जाता है ---उसकी स्वीकृति अथवा तद्रप-प्रवृत्तिका क्या कुछ ध्येय तथा उद्देश्य है--- और उसको अंगीकार करनका कौन पात्र है ? यही सब इस कारिकामें बतलाया गया है, जिसे दूसरे शब्दों-द्वारा आत्मामें सम्यक्चारित्रकी प्रादुर्भतिका क्रम-निर्देश भी कह सकते हैं। इस निर्देशमें उस सत्पुरुषको सम्यक्चारित्रका पात्र ठहराया है जो सम्यग्ज्ञानी हो, और इसलिये अज्ञानी अथवा मिथ्याज्ञानी उसका पात्र ही नहीं। सम्यग्ज्ञानी वह होता है जो सम्यग्दर्शनको
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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