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कारिका २१-२२] लोकमूढ-लक्षण अक्षरन्यून-कमती अक्षरोंवाला--मंत्र विषकी वेदनाको नष्ट करनेमें समर्थ नहीं होता है।'
व्याख्या-जिस प्रकार मर्पसे डसे हुए मनुष्यके सर्वअंगमें व्याप्त विषकी वेदनाको दूर करनेके लिये पूर्णाक्षर मंत्रके प्रयोगकी जरूरत है-न्यूनाक्षर मंत्रसे काम नहीं चलता, उसी प्रकार संसार-बंधनसे छुटकारा पाने के लिये प्रयुक्त हुआ जो सम्यग्दर्शन वह अपने आठों अगोंसे पूर्ण होना चाहिये----एक भी अंगके कम होनेसे सम्यग्दर्शन विकलांगी होगा और उससे यथेष्ट काम नहीं चलेगा-वह भववन्धनसे अथवा मांसारिक दुःखोंसे मुक्तिकी प्राप्तिका समुचित साधन नहीं हो सकेगा। .. सम्यग्दर्शनके लक्षणमें उसे तीन मृढता-रहित बतलाया था, वे तीन मूढता क्या हैं और उनका स्वरूप क्या है. इसका स्पष्टीकरण करते हुए स्वामीजी स्वयं लिखते हैं .....
लोकमुढ-लक्षण आपगा-सागर-स्नानमुच्चयः सिकताऽश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते ॥२२॥ ( लौकिक जनोंके मूढतापूर्ण दृष्टिकोणका गलानुगतिक रूपसे अनुसरण करते हुए, श्रेयः साधनक अभिप्रायये प्रथया धर्मबुद्धि से ) जो नदी-सागरका स्नान है, बालरेन नथा पत्थरोंका स्नूपाकार ऊँचा ढेर लगाना है, पर्वतपरसे गिरना है.अग्निमें पड़ना अथवा प्रवेश करना है, और 'च' शब्दसे इमी प्रकारका और भी जो कोई काम है वह सब 'लोकमूढ' कहा जाता है। ___ व्याख्या-यहाँ प्रधानतासे लोकमूढताके कुछ प्रकारोंका निर्देश किया गया है और उस निर्देशके द्वारा ही समूचे लोकमूढतत्त्वको समझनेकी ओर संकेत है । नदी-सागरके स्नानादि कार्य लोकमें जिस श्रेयःसाधन या पापोंके नाशकी दृष्टि अथवा धर्मप्राप्तिकी