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________________ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०१ व्याख्या-इस अंगकी अंगभूत दो बातें यहाँ खास तौरसे लक्षमें लेने योग्य हैं, एक तो यह कि जिस धर्ममार्गकी निन्दा होती हो वह स्वयं शुद्ध होना चाहिये-अशुद्ध नहीं । जो मार्ग वस्तुतः अशुद्ध एवं दोषपूर्ण है-किसी अज्ञानभावादिके कारण कल्पित किया गया है-उसकी निन्दाके परिमार्जनका यहां कोई सम्बन्ध नहीं है-भले ही उस मार्गका प्रकल्पक किसी धर्मका कोई बड़ा सन्त साधु या विद्वान ही क्यों न हो। मार्गकी शुद्धतानिर्दोषताको देखना पहली बात है। दूसरी बात यह है कि वह निन्दा किसी अज्ञानी अथवा अशक्तजनका श्राश्रय पाकर घटित हुई हो । जो शुद्धमार्गका अनुयायी नहीं ऐसे धूर्तजनके द्वारा जान बूझकर घटित की जाने वाली निन्दाके परिमार्जनादिका यहां कोई सम्बन्ध नहीं है । ऐसे धूतोंकी कृतियोंका सन्मार्गकी निन्दा होनेके भयसे यदि गोपन किया जाता है अथवा उनपर किसी तरह पर्दा डाला जाता है तो उससे धूर्तताको प्रोत्साहन मिलता है, बहुतोंका अहित होता है और निन्दाकी परम्परा चलती है । अतः ऐसे धूर्तोंकी धूर्तताका पर्दाफाश करके उन्हें दण्डित कराना तथा सर्वसाधारणपर यह प्रकट कर देना कि 'ये उक्त सन्मार्गके अनुयायी न होकर कपटवेपी हैं' सम्यग्दर्शनके इस अंगमें कोई बाधा उत्पन्न नहीं करता, प्रत्युत इसके पेशेवर धूर्तोसे सन्मार्गकी रक्षा करता है। स्थितीकरणाङ्ग-लक्षण दर्शनाच्चरणद्वाऽपि चलतां धर्मवत्सलैः। प्रत्यवस्थापन प्राः स्थितीकरणाच्यते ॥१६॥ 'सम्यग्दर्शनसे उपका सम्यकचारित्रसे भी जो लोग चलायमान हो रहे हों--डिग रहे हों-उन्हें इस विषय दल एवं धर्मसे अंस निवाला स्त्री-पुरपाक द्वारा का सामनशन या
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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