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________________ ५१ कारिका १५] उपगृहनाङ्ग-लक्षण कायसे प्रशंसादिक न करना एक बात तो यह अमूढदृष्टिके लिये श्रावश्यक है,दूसरी बात यह आवश्यक है कि वह कुमार्गमें स्थितकी भी मन-वचन-कायसे कोई प्रशंसादिक न करे और यह प्रशंसादिक, जिसका यहां निषेध किया गया है, उसके कुमार्गमें स्थित होनेकी दष्टिसे है, अन्य दष्टिसे उस व्यक्तिकी प्रशंसादिका यहां निषेध नहीं है । उदाहरणके लिये एक मनुष्य धार्मिक दृष्टिसे किसी ऐसे मतका अनुयायी है जिसे 'कुमार्ग' समझना चाहिये; परन्तु वह राज्यके रक्षामंत्री आदि किसी ऊंचे पद पर आसीन है और उसने उस पदका कार्य बड़ी योग्यता, तत्परता और ईमानदारीके साथ सम्पन्न करके प्रजाजनोंको अच्छी राहत (साता, शान्ति) पहुँचाई है, इस दष्टिसे यदि कोई सम्यग्दृष्टि उसकी प्रशंसादिक करता या उसके प्रति आदर-सत्कारके रूपमें प्रवृत्त होता है, तो उसमें सम्यग्दर्शनका यह अंग कोई बाधक नहीं है । बाधक तभी होता है जब कुमार्गस्थितिके रूपमें उसकी प्रशंसादिक की जाती है; क्योंकि कुमार्गस्थितिके रूपमें प्रशंसा करना प्रकारान्तरसे कुमार्गकी ही प्रशंसादिक करना है, जिसे करते हुए एक सम्यग्दष्टि अमूढदृष्टि नहीं रह सकता। उपगृहनाङ्ग-लक्षण स्वयं शुद्धस्य मागेस्य बालाऽशक्त-जनाऽऽश्रयाम् । वाच्यतां यत्प्रमाजेन्ति तद्वदन्त्युपगहनम् ॥१५॥ 'जो मार्ग-सम्यग्दर्शनादिरूपधर्म--स्वयं शुद्ध है-स्वभावतः निर्दोष है-उसकी बालजनोंके-हिताऽहितविवेकरहित अज्ञानी मूढजनोंके--तथा अशक्तजनोंके-धर्मका ठीक तौरसे (यथाविधि) अनुप्ठान करनेकी सामर्थ्य न रखनेवालोंके-आश्रयको पाकर जो निन्दा होती हो-उस निर्दोष मार्गमें जो असद्दोषोद्भावन किया जाता होउस निन्दा या असदोषोद्भावनका जो प्रमार्जन- दूरीकरण ---- है उसे 'उपगृहन' अंग कहते हैं।'
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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