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________________ कारिका ५] परमार्थ प्राप्त लक्षण ३७ __इसी तरह निन्दा और गर्दा गुणोंको सम्यक्त्वके उपलक्षण बतलाया है; क्योंकि वे प्रशम (उपशम) गुणके लक्षण हैं---अभिव्यञ्जक हैं । अर्थात् प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये चार गुण सम्यग्दर्शनके लक्षण हैं, तो अर्हद्भक्ति, वात्सल्य, निन्दा और गर्दा ये चार गुण उसके उपलक्षण है । इससे भी 'भक्ति' सम्यग्दशेनका गुण ठहरता है। ___ यहाँ प्राप्तादिके जिस श्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाया है उस के लिये 'अष्टाङ्ग" 'त्रिमूढापोढं' तथा 'अस्मयं ऐसे तीन विशेषणपदोंका प्रयोग किया है और उनके द्वारा यह सूचित किया है कि विवक्षित सम्यग्दर्शनके आठ अंग है और वह तीन मूढताओं तथा (आठ प्रकारके) मदोंसे रहित होता है । ___ ग्रन्थमें निर्दिष्ट आठ अंगोंके नाम हैं-१ असंशया (निःशंकित ), २ अनाकांक्षणा ( निष्कांक्षित ), ३ निर्विचिकित्सिता, ४ अमूढदृष्टि, ५ उपगृहन, ६ स्थितीकरण, ७ वात्सल्य, ८ प्रभावना। और तीन मूढताओंके नाम हैं-१ लोकमूढ, देवतामूढ, ३ पाषण्डिमूढ । इन सबका तथा स्मय (मद)का क्रमशः लक्षणात्मक स्वरूप ग्रन्थमें आप्तादिके स्वरूप-निर्देशानन्तर दिया है। परमार्थ प्राप्त-लक्षण आप्तेनोत्सन्न-दोषेण सर्वज्ञेनाऽऽगमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नाऽन्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥५॥ ‘जो उत्सन्न दोष है-राग-द्वेष मोह और काम-क्रोधादि दोषोंको नष्ट कर चुका है---, सर्वज्ञ है-समस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावका ज्ञाता है -और आगमेशी है-हेयोपादेयरूप अनेकान्त-तत्त्वके विवेक आत्महितमें प्रवृत्ति करानेवाले अबाधित सिद्धान्त-शास्त्रका स्वामी अथवा x देखो, पंचाध्यायी उत्तरार्ध, श्लोक ४६७ से ४७६ तथा लाटी संहिता, तृतीयसर्ग श्लोक ११० से ११८ ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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