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________________ ३६ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०१ जो दृष्टिलक्ष्मी (सम्यग्दर्शनसम्पत्ति) को 'जिनपदपद्मप्रेक्षणी' बतलाया गया है वह सब भी इसी बातका द्योतक है। पंचगुरुसे अभिप्राय पंचपरमेष्ठीका है, जिनमेंसे अर्हन्त और सिद्ध दोनों यहां 'आप्त' शब्दके द्वारा परिग्रहीत हैं और शेष तीन आचार्य उपाध्याय तथा साधु परमेष्ठीका संग्रह 'तपस्वी' शब्दके द्वारा किया गया है, ऐसा जान पड़ता है । इसके सिवाय, प्रकृत पद्यमें वर्णित सम्यग्दर्शनका लक्षण चूंकि सरागसम्यक्त्वका लक्षण हैवीतराग सम्यक्त्वका नहीं है, इससे इसमें भक्तियोगके समावेशका होना कोई अस्वाभाविक भी नहीं है । भक्तिको स्पष्टतया सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) का गुण लिखा भी है, जैसा कि निम्न गाथासूत्रसे प्रकट है, जिसमें संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा, ये सम्यक्त्वके आठ गुण बतलाये है संवेो गिव्वेओ शिंदण गरुहा य उवसमो भत्ती । वच्छल्लं अणुकंपा अडगुणा हुंति सम्मत्ते ॥ -वसुनन्दि-श्रावकाचार ४६ पंचाध्यायी और लाटीसंहितामें,इसी गाथाके उद्धरणके साथ, अहंभक्ति तथा वात्सल्य नामके गुणोंको संवेगलक्षण गुणके लक्षण बतलाकर सम्यक्त्वके उपलक्षण बतलाया है और लिखा है कि वे संवेग गुणके बिना होते ही नहीं-उनके अस्तित्वसे संवेग गुगणका अस्तित्व जाना जाता है । यथा यथा सम्यक्त्वभावस्य संवेगो लक्षणं गुणः । स चोपलक्ष्यते भक्त्या वात्सल्येनाथवाऽर्हताम् ॥ भक्तिर्वा नाम वात्सल्यं न स्यात्संवेगमन्तरा । .. संवेगो हि दृशो लक्ष्म द्वावेतावुपलक्षणौ ॥.. +सराग और वीतराग ऐसे सम्यग्दर्शनके दो भेद हैं "स द्वेधा सरागवीतरागविषमभेदात्"---सर्वार्थसिद्धि प्र०१ सू०२
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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