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________________ कारिका ३] धर्म-लक्षण को धर्म कहा है, अहिंसाको परमधर्म तथा दयाको धर्मका मूल बतलाया है और उत्तम क्षमादि दशलक्षणधर्मका खास तौरसे प्रतिपादन किया है, तब अकेले रत्नत्रयको ही यहाँ धर्मरूपमें क्यों ग्रहण किया गया है ? क्या दुसरे धर्म नहीं हैं अथवा उनमें और इनमें कोई बहुत बड़ा अन्तर है ? इसके उत्तरमें मैं सिर्फ इतना ही कह देना चाहता हूँ कि धर्म तो वास्तव में 'वस्तुस्वभाव' का ही नाम है, परन्तु दृष्टि, शैली और आवश्यकतादिकं भेदसे उसके कथनमें अन्तर पड़ जाता है । कोई मंक्षेपप्रिय शिष्योंको लक्ष्य करके संक्षिप्त रूपमें कहा जाता है. तो कोई विस्तारप्रिय शिष्योंको लक्ष्यमें रखकर विस्तृत रूपमं । किमीको धमके एक अंगको कहनेकी जरूरत होती है, ता किमीको अनेक अंगों अथवा सर्वाङ्गोंको। कोई बात सामान्यरूपमे कही जाती है, तो कोई विशेषरूपसे। और किसीको पूर्णतः एक स्थानपर कह दिया जाता है, तो किसीको अंशोंमें विभाजित करके अनेक स्थानोंपर रक्खा जाता है। इस तरह वस्तुके निर्देशमं विभिन्नता आजाती है, जिसके लिये उसकी दृष्टि आदिको समझनेकी जरूरत हाती है और तभी वह ठीक रूपमें समझी जा सकती है। धर्मका वस्तुस्वभाव' लक्षण वस्तुमात्रका लक्ष्य करके कहा गया है और उसमें जड तथा चेतन सभी पदार्थ आजाते हैं और वह धमक पूर्ण निर्देशका अतिसंक्षिप्त रूप है। इस ग्रंथम जडपदार्थाका धर्मकथन विवक्षित नहीं है बल्कि 'सत्वान' पदके वाच्य जीवात्माओंका स्वभाव-धर्म विवक्षित है और वह न-अतिसंक्षेप न-अतिविस्तारसे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप है। इसके सम्यकचारित्र अंगमें 'चारित्तं खलु धम्मा' का वाच्य चारित्र आ ही जाता है । चूँकि वह सम्यक्चारित्र है और सम्यक्चारित्र सम्यग्ज्ञानके के उत्तमक्षमा-मार्दवार्जव-सत्य-शौच-संयम-तपस्त्यागाकिञ्चन्य-ब्रह्मचर्या रिग धर्म:। -सत्त्वार्थसूत्र ६-६
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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