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________________ समीचीन-धर्मशास्त्र एकस्मिन्समवायादत्यन्तविरुद्धकार्ययोरपि हि। इह दहति घृतमिति यथा व्यवहारस्तादृशोऽपि रूढमितः ॥२२१।। -पुरुषार्थसिद्ध्युपाय यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि इस रत्नत्रयधर्मके मुख्य और उपचार अथवा निश्चय और व्यवहार एसे दो भेद है, जिनमें व्यवहारधर्म निश्चयका सहायक और परम्परा मोक्षका कारण है; जब कि निश्चयधर्म साक्षात् मोक्षका हेतु है । और इनकी आराधना दो प्रकारसे होती है-एक सकलरूपमें और दूसरी विकलरूपमें । विकलरूप आराधना प्रायः गृहस्थोंके द्वारा बनती है और सकलरूप मुनियोंके द्वारा । विकलरूपसे (एकदेश अथवा आंशिक) रत्नत्रयकी आराधना करने वाल के जो शुभराग-जन्य पुण्यकर्मका बन्ध होता है वह मोक्षकी साधनामें सहायक होनेसे मोक्षोपायके रूपमें ही परिगणित है, बन्धनोपायके रूपमें नहीं है। इसीसे इस ग्रन्थमें, जो मुख्यतया गृहस्थोंको और उनके अधिक उपयुक्त व्यवहार-रत्नत्रयको लक्ष्य करके लिखा गया है, समीचीन धर्म और उसके अंगोपाङ्गोंका फल वर्णन करते हुए उसमें निःश्रेयस सुखके अलावा अभ्युदयसुख अथवा लौकिक सुखसमृद्धि (उत्कर्ष)का भी बहुत कुछ कीर्तन किया गया है। अब एक प्रश्न यहाँ पर और रह जाता है और वह यह कि धर्मके अधिनायकाने तो वस्तुस्वभाव को धर्म कहा है, चारित्र * असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः । सविपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ॥ २११ ।। -पुरुषार्थसिद्ध्युपाय + “धम्मो वत्थुसहावो।" -कातिकेयानुप्रेक्षा ४७६ है चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति सिद्दिट्टो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥७॥-प्रवचनसार ४.
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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