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प्रस्तावना
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आए हैं और उनसे ज्योतिष, वैद्यक, मन्त्र और तन्त्र जैसे विषयोंमें भी समन्तभद्र की निपुणताका पता चलता है । समीचीन धर्मशास्त्र ( रत्नकरण्ड ) में, अंगहीन सम्यग्दर्शनको जन्मसन्ततिके छेदनमें असमर्थ बतलाते हुए, जो विषवेदनाके हरनेमें न्यूनाक्षरमन्त्रकी असमर्थताका उदाहरण दिया है वह और शिलालेखों तथा ग्रन्थोंमें 'स्वमन्त्रवचन-व्याहूत-चन्द्रप्रभः'-जैसे विशेषणोंका जो प्रयोग पाया जाता है वह सब भी आपके मन्त्र-विशेषज्ञ तथा मन्त्रवादी होनेका सूचक है । अथवा यों कहिये कि आपके 'मान्त्रिक' विशेषणसे अब उन सव कथनोंकी यथार्थताको अच्छा पोषण मिलता है । इधर हवीं शताब्दीके विद्वान् उग्रादित्याचार्यने अपने 'कल्याणकारक' वैद्यक ग्रन्थमें 'अष्टाङ्गमप्यखिलमत्र समन्तभद्रः प्रोक्त सविस्तरवचो विभवैर्विशेषात्' इत्यादि पद्य(२०-८६) के द्वारा समन्तभद्रकी अष्टाङ्गवैद्यक-विषयपर विस्तृत रचनाका जो उल्लेख किया है उसको ठीक बतलानेमें 'भिपक' विशेषण अच्छा सहायक जान पड़ता है। ___अन्तके दो विशेषण 'आज्ञासिद्ध' और 'सिद्धसारस्वत' तो बहुत ही महत्वपूर्ण हैं और उनसे स्वामी समन्तभद्रका असाधारण व्यक्तित्व बहुत कुछ सामने आजाता है । इन विशेषणोंको प्रस्तुत करते हुए स्वामीजी राजाको सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि-'हे राजन् ! मैं इस समुद्र-वलया पृथ्वी पर 'आज्ञासिद्ध' हूँ-जो आदेश दूँ वही होता है । और अधिक क्या कहा जाय, मैं 'सिद्धसारस्वत' हूँ-सरस्वती मुझे सिद्ध है । इस सरस्वतीकी सिद्धि अथवा वचनसिद्धिमें ही समन्तभद्र की उस सफलताका सारा रहस्य संनिहित है जो स्थान-स्थान पर वादघोषणाएँ करने पर उन्हें प्राप्त हुई थी और जिसका कुछ विवेचन ऊपर किया जा चुका है।
समन्तभद्रकी वह सरस्वती ( वाग्देवी) जिनवाणी माता थी,