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________________ प्रस्तावना सारसागर' लिखा है और यह प्रार्थना की है कि वे मुझ कवित्वकांक्षीपर प्रसन्न होवें - उनकी विद्या मेरे अन्तःकरण में स्फुरायमान होकर मुझे सफल - मनोरथ करे ।'समन्तभद्रादि-महाकवीश्वराः कुवादि - विद्या-जय- लब्ध-कीर्तयः । सुतर्क शास्त्रामृतसार-सागरा मयि प्रसीदन्तु कवित्वकांक्षिणि ॥ (५) श्री शुभचन्द्राचार्यने, ज्ञानावि में, यह प्रकट किया है कि 'समन्तभद्र - जैसे कवीन्द्र सूर्योकी जहाँ निर्मलसूक्तिरूप किरणें स्फुरायमान हो रही हैं वहां वे लोग खद्योत - जुगुनूँ की तरह हँसीके ही पात्र होते हैं जो थोड़ेसे ज्ञानको पाकर उद्धत हैं- कविता (नूतन संदर्भकी रचना) करके गर्व करने लगते हैं। - समन्तभद्रादिकवीन्द्र भास्वतां स्फुरन्ति यत्राऽमलसृक्तिरश्मयः । व्रजन्ति खद्योतवदेव हास्यतां न तत्र किं ज्ञानलवोद्धता जनाः ॥ ६६ , (६) भट्टारक सकलकीर्तिने, पार्श्वनाथचरित्र में लिखा है कि 'जिनकी वाणी ( ग्रन्थादिरूप भारती ) संसार में सब ओरसे मंगलमय है और सारी जनताका उपकार करनेवाली है उन कवियों के ईश्वर समन्तभद्रको सादर वन्दन ( नमस्कार ) करता हूँ ।" समन्ताद्भुवने भद्रं विश्वलोकोपकारिणी । यद्वाणी तं वन्दे समन्तभद्रं कवीश्वरम् ॥ ་ (७) ब्रह्मजितने, हनुमच्चरित में समन्तभद्रको 'दुर्वादियोंकी वादरूपी खाज-खुजलीको मिटानेके लिये अद्वितीय महौषधि ' बतलाया है । जीयात्समन्तभद्रोऽसौ भव्य - कैरव - चन्द्रमाः । दुर्वादि-वाद- कण्डूनां शमनैक महौषधिः ||
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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