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________________ प्रस्तावना प्राभृत' की टीकामें उनका महाकवि समन्तभद्रके नामके साथ उल्लेख किया है और उनके आदिमें लिखा है 'उक्त च समन्तभद्रेण महाकविना' । अन्यथा, वे समन्तभद्रके किसी भी प्रन्थमें नहीं पाये जाते और न अपने साहित्य परसे ही वे इस बातको सूचित करते हैं कि उनके रचयिता स्वामी समन्तभद्र-जैसे कोई प्रौढ विद्वान् और महाकवि आचार्य हैं। अवश्य ही वे दूसरे किसी ग्रन्थ अथवा ग्रन्थोंके पद्य हैं और इसीसे दूसरी मूल प्रतिके टिप्पणमें और दोनों कनड़ी टीका ओम उन्हें 'उक्त च चतुष्टयं' शब्दोंके साथ उद्धत किया है। एक पद्य तो उनमेंसे चारित्रसार ग्रन्थका ऊपर बतलाया भी जा चुका है। आराके जैनसिद्धान्तभवनकी उक्त प्रतियोंकी जाँचके बाद मुझे और भी अनेक शास्त्रमण्डारोंमें ऐसी अधिक पद्योंवाली प्रतियोंको देखने तथा कुछको जाँचनेका भी अवसर मिला है। जिनमें कारंजाके मूलसंघी चन्द्रनाथ-चैत्यालयकी दो प्रतियाँ यहाँ उल्लेख-योग्य हैं। इनमें एक मूल ( नं० ५८७ ) और दूसरी (नं० ५८६ ) कनडी-टीका-सहित है। टाकावाली प्रतिमें ४५ पद्य बढ़े हुए हैं, उन पर भी टीका है और वे मूलके अंग रूपमें ही पत्रोंके मध्यमें दिये हुए हैं, जब कि टीकाको ऊपर-नीचे अंकित किया गया है। इन पद्योंकी स्थिति आगरा-भवनकी प्रायः चौथी प्रतिजैसी है । दूसरी मूल प्रतिके पद्योंकी संख्या २१६ है अर्थात उसमें ६६ पद्य बढ़े हुए हैं, जिनमें ४० पद्य तो आराकी पहली मूलप्रतिवाले और २६ पद्य उससे अधिक है। यह प्रति शक संवत् १६.१ में चैत्र-शुक्ल प्रतिपदाको ब्रह्मचारी माणिकसागरके द्वारा १६ पत्रों पर स्वपठनार्थ लिखकर पूर्ण हुई है। इस मूलप्रतिमें आराकी उक्त मूल प्रतिसे जो २६ पद्य बढ़े हुए हैं और जिन्हें ॐ देखो, सूत्रप्राभृतकी गाथा नम्बर २१ की टीका ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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