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________________ (३६) आर्यमतलीला ॥ मानने वाले पुरुषों को कदाचित् भी | प्यारे भाइयो स्यामीजीका कोई भी माननीय नहीं हो सकता है क्योंकि कथन इस विषय में सत्य नहीं होता इस से वेदों का सष्टि की आदि में उ-है क्योंकि श्राप जानते हैं कि संसारमें त्पन्न होना खंष्ठित होता है इस कारण हजारों और लाखों प्रकार के पक्ष में यह प्राचीन लेख ही सत्य है कि वेदके और मनुष्यों द्वारा पृथक् २ वक्ष का प्रत्येक मंत्र अर्थात् गीतको प्रत्येक ऋषि | पृषक २ नाम रक्खा हुअा है परन्तु वेने बनाया है और इन सब गीतोंका | दोंमें दश पांच ही वृक्षोंका नाम मिसंग्रह होकर वेद बन गया है इन ऋ-लेगा-संमारमें हजारों और लाखों प्र. षियों को यदि हम धामिक ऋषि म | कारक पशु और पक्षी हैं और अलग कहैं बरण कवि कहैं तो कुछ अनुचित अलग सबका नाम मनुष्योंकी भाषामें नहीं है क्योंकि कधि लोग साधारण | है परन्तु वेदों में दम बीमका ही नाम मनुष्यों से अधिक बुद्धिमान् समझे जाया मिलेगा। संसार में हजारों प्रकार की करते हैं प्राज कल भी जो लोग स्वांग औषधि हजारों प्रकार के औज़ार इ. बनाने की कबिता करते हैं वह उ-जारों प्रकारको बस्त हैं और ममष्यों स्ताद कहलाये जाते हैं और स्वांग ब- | ने मब के नाम रख रक्खे हैं और जो। नाने वालों के चेले स्वांग बनाने वाले | नवीन वस्त बनाते जाते हैं उसका भी उस्तादोंकी बहुत प्रशंसा किया करते हैं. नाम अपनी पहचान के वास्ते रखते हे प्रार्य मारयो ! स्वामी जी ने यह जाते हैं । परन्त इनमे बीस तीम ही तो फार दिया कि ईश्वरने मनुष्यों को सृष्टि बम्तके नाम बंद में मिलते हैं। तो क्या की प्रादिमें वेदों के द्वारा ज्ञानदिया पर- अनेक वस्तुओं के नाम मनुष्यों ने प्रनए वह न वताया कि वेदोंकी भाषा स-पने आप नहीं रख लिये हैं और क्या मझनेके वास्ते उन मनष्योंको वेदोंकी | | इन ही प्रकार मनुष्य अपनी भाषा भाषा किनने सिखाई ? स्वामीजीका नहीं बना लेते हैं। यदि ऐमा है तो तो यह ही कथन है कि भापा मनुष्प फिर आप क्यों स्वामी जी के मकअपने पाप नहीं बना सकता है बरण | धन को मानती हैं कि बिना वेदों के ईश्वर ही उन को भापा निवाता है | मनष्य अपनी भाषा भी नहीं बना सब वेदों के प्रकाश से पहले ईश्वर ने | सकता है? किसी मनुष्य का रूप धारण करके ही कहा, हम अपने आर्य भाइयों से पड़ते हैं उन मनष्योंको भाषा मिखाई होगी। कि संस्कृत भाषा सब में श्रेष्ठ और सक्योंकि वेदों में तो भाषा मीने की | सम भाषा है या नहीं और गंवार कोई विधि नहीं है घरण बंदोंमें तो भाषा का संस्कार करके अर्थात् शब्दकप्रारम्भ से अन्ततक गीत ही गीत हैं- रके ऋषियों ने इमको बनाया है वा
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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