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________________ भार्पमतलीला ॥ जानने वाला होता है अर्थात् भूत भ. और इन हेतु, फल शादि के प्रभावसे विष्यस बर्तमान सर्व पदार्थों को एक वासनाओं का भी प्रभाव हो जाता ही धक्स में जानता है उमको विवेकज है भावार्थ इन दोनों सूत्रों का यह है जान कहते हैं। कि यद्यपि बासनाएं अनादि हैं परंतु | नोट-प्यारे भाइयो, योगशास्त्र कमी ममाधि थमा से बाम नामों का नाश स्पष्टता के साथ योगी को सर्वज्ञता हो जाता है और मुक्ति अवस्था में प्राप्त होने का वर्णन करता है पर कोई बामना नहीं रहती है। स्वामी दयानन्द जी मुक्ति पाने पर | मुक्ति में कोई कर्म बाकी नहीं रहभी उसको प्रत्यक्ष ही रखना चाहते हैं। | ता कोई बामना नहीं रहती सत्व, सच तो यह है कि स्वामी दयानन्द रज और तम कोई गुमा नहीं रहता जी ने या तो आत्मिक शक्तिको जाना| प्रकृति मे मेल नहीं रहमा जीवात्मा नहीं है या प्रामि मिद्धान्तों को छि- निर्गगा हो जाता है और कैवल्य, स्वपा कर मनुष्यों को संमार में डुबाने की उछ रह जाता है फिर नहीं मालम चेष्टा को है पदि हमारे भाई एक न- स्वामी जी को यह लिखने का कैसे जर भी योग शास्त्र को देख जायना | माहस हुआ कि मुक्त जीव इच्छानुमार उन को मालम हो जावे कि दयान- संकल्पी शरीर बनाकर सबस्थानों के न्द जी ने मुक्ति को बिल्कुन बच्चों आनन्द भोगते हुये फिरते रहते हैं ? का खेन ही बना दिया है। स्वामी देखिये योग दर्शन में वैराग्यका ल. जी को सत्यार्थप्रकाश में यह लियते क्षण इस प्रकार किया है। हुने अवश्य लामा पानी चाहिये थी दृष्टानुअविक विषय वितृष्यास्य ब. कि मुक्ति जीव भी संकल्पी शरीर ब | शोकार संज्ञा वैराग्यम् ॥ १॥ १५ नाकर प्रानंद के वास्ते जगह २ फिरता अर्थ दृष्ट और अनुविक विषयों की है और अन्य मुक्त होवों से भी मि- सृष्णा से रहित चित्त के वश करने को बना रहता है। वैराग्य कहते हैं। सासामनादिरखंधाशिषी नित्यत्या- तत्परमपुरुष ख्यातेर्गुल घेतृष्पपम् | त्॥ ४ ॥ १० अर्थ- बासना अनादि हैं सुख की | अर्ध-वह वैराग्य परम पुरुष की या नित्य होने से। | स्थाति से प्रकृति के गुण प्रांत मत्व । हेतुफानाप्रयालम्पनैः संगृहीतवा दे | रज तम और उन के कार्य में वृक्षा पामभावतभावः ॥ ४ ॥११ रहित होना है। अर्थ-हेतु, कम, प्रामय और भाग्न- अब हम पाते हैं कि जीध जब लम्बन से बामनाएं संग्रहीत होती है ' सत्व, रज और तम प्रकृमि के मसी - -
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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