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________________ प्रार्यमत्तलीसा ॥ १९५ कर और खालिम कहलाती हैं-नही | दपानन्द जीने मुक्तजीवोंकी बताई है प्रकार जीव और प्रकृति मिमकर खोट कि भी क्रमरूप ही ज्ञान प्राप्त कपैदा होता है--प्रकृति के तीन गुण हैं | रते हैं--परन्तु प्यारे पाठको ! दर्शन मत्व, रज और तम-रज और तम के कार इम के विरुद्ध कहते हैं और प्रा. दूर होनेका वर्णन तो योगशास्त्र में पूर्व | त्माकी शक्ति माताकी बताकर मो. किया गया-योगी में एक मत्व गुगाका ) क्षमें मर्वनाकी प्राप्ति दिखाते हैं-देखो खोट रह गया था नमका वर्णन इस सूत्र | योगदर्शन इप्रकार कहता है:में करते हैं कि जब मत्य भी प्रात्मामे “ परिगामित्र यम पमादमीतानागत अलग होजावे और भात्मा और मत्व | जानम् ” ॥ २३॥ १० १६ ॥ दोनों प्रगग २ होकर शुद्ध हो गाव नब अर्थ-तीन परिणाम के संयमसे भत मात्मा कैवल्य अर्थात् खालिम हो जाना | और भविष्यतका ज्ञान होता है। है-मत रज और तम जनही तीनों . मत्यपरवान्यनागातिमात्रस्यगुगोंसे कर्म पैदा होते हैं जब प्रकृति | मर्व भावाधिष्ठातृत्वमर्वःतृत्वं प३।४८ के यह तीनों गुण नाश होकर मात्मा अर्थ--मत्य पुरुषकी अन्यना रूपाति कैवल्य होगया त कर्मका ती लेश भी मात्रको मर्व भावांका अधिष्ठातापना बाकी नहीं रह सकता है। और मर्वज्ञपना होता है। नोट-नहीं मानम स्वामी जी को कहां क्षा सातत् क्रमयोः संयमाद्विवेकजा मे सरस्वतीका यह बर मिना है कि | नम ॥ ३ ॥ ५१ मुक्तिको भी कोंका ही फल वर्णन क- अर्थ -क्षगा ( काल का मब से छोटा रते हैं जिसमे हमारे लाखों भाइयों भाग ) और उसके क्रम में संयम करने फा श्रद्धान भ्रष्ट होगया और होने की से विवकज ज्ञान होता है। सम्भावना है। । नोट-प्राश्चर्य है कि योगशास्त्र तो दयानन्द जीने मुक्तिको संमारके ही क्रम में संयम करने का उपदेश करता तन्य बनाने के धाम्ने मुक्ति पाकर भी है और उममे ही विक ज्ञान की जोयको अल्पज्ञ ही बर्शन किया है और प्राप्ति बताता है और दयानन्द जी मोक्षमें भी उसका क्रम पर्ती ज्ञान कहा ऐमी दया करते हैं कि मुक्तशीव के है अर्थात् जिम प्रकार मपारी जीव भी क्रमवर्ती ज्ञान बताते हैं मागे योग अपने जान पर कर्मों का प्रावरण होने दर्शनवित्रक ज्ञानको मर्बजता बताताहै की बजहमे इन्द्रियों का महारा लेते हैं। तारक मर्वविषयं मर्वथा विषयम और आत्मिक शक्ति ढकी हुई हानेके क्रमंचेति विज्ञानम् ॥३॥६१ कारण संगारकी वस्तुओंको क्रम रूप अर्थ-तारक प्रात् संसार से तिराने देखते हैं अर्थात् मय बस्तुओं को एक बाला ज्ञान जी सर्व विषय को और साथ नहीं देख सक्त हैं ऐमो ही दशा | जन को सर्व अवस्थाओं को यगपत - - -
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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