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________________ १५८ भार्यमतलीला ॥ सांरूप दर्शनके प्रथम अध्याय का १५६ | भावा-जैमा वर्तमान काल में संसार घां सूत्र हैं जो अद्वैतवाद के खंडनमें है- विद्यमान है और प्रथक २ जीव हैं। सूत्र १४९ से अद्वैतका खंडन प्रारम्भ | इस ही प्रकार मर्यकाल में भी समझकिया है ययाः ना चाहिये--ऐमा कभी नहीं होता कि "जम्मादि व्यवस्थातः पुरुषबहुत्वम् | ससार का संसार का सर्वनाश हो कर सब कुछ ॥ मा० अंक १ ॥ सू० १४८ | झमें लय हो जाव और एक ब्रह्म ही __अर्थ-जन्मादि की व्यवस्थामे प- ब्रह्म रह जावंरुषोंका बहुत होना मिद्ध होता है - माश्चर्य है कि इस सूत्र के अर्थ में म. चात् पुरुष एक नहीं है यरया अनेक हैं| रस्वतीजी ने यह किम शब्द का अर्थ इस प्रकार अद्वैत के विरुद्ध लिखते लिख दिया "किन्त बंध और मुक्ति हुये और अम का खरा इन करते हुये सदा नहीं रहती,, सांख्य इस प्रकार लिखता हैं:-- । यदि मांख्यदर्शनको स्वामी जीने “वामदेवादिर्मुक्तो नाद तम्,, | सां० प्राद्योपांत पढ़ा होता और उनके ए. ॥ १॥ १५७ दय में यह बात न होती कि अयिद्या अर्थ-वामदेव प्रादि मुक्त हैं यह प्र अंधकार फैला हुआ है, भोले मनुष्य द्वैत नहीं है क्योंकि इमसे नी द्वैत जिम तरह चाई बहकाये ना सक्त हैं। सिद्ध होता है कि अमुक पुरुष तो मुक्त | तो मुक्तिसे लौटने के मन में कभी हो गया और अन्य नहीं हुए। अदेत | भी वह मांरूपदर्शन का नाम तक न तो तब हो जब कि मजीव मुक्तक | लेते क्योंकि मांख्यदर्शनके तो पद २ र ब्रह्म में लय हो जावै भीर सिवाय | और गब्द २ से मुक्ति मदा हीके बास्त ब्रह्म के और कछ भी न रहै । परन्त- मिद्ध होती है.--मांख्य ने यही वही __ "अनादायद्ययायदभावाद्भविष्यदप्ये यक्तियों से मुक्ति से न लौटना मिद्ध वम् " ॥ मां ॥ २१॥ १५८ |किया है यया:-- अर्थ-अनादिकाल में अब तक सर्व प्रकारान्तरासम्भवादविवेकएपबंधः॥ जीव मुक्त होकर अद्वैत मिद्ध हुडा सां० प्र०६॥ म० १६ नहीं सोभविष्यत कान में केमे होमक्ता अर्थ-अन्य प्रकार संभव न होने से है। क्योंकि ( प्रब वह मत्र लिखते हैं अविवेकही बंध है-अर्थात् बंधका का जिनको स्वामी जी ने लिखा है) र अविवेकही है अन्य कोई भी का "नुदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः| रण बंधके वास्ते मम्भव नहीं है। ॥सां० ॥ ०१॥ १५९ । “नरपेक्ष्येऽपि प्रकृत्युपकार वित्रेको अर्थ-वर्तमान काम्न के समान निमित्तम्” ॥ सां० ॥ ३ ॥ ०६॥ कभी भी मर्वनाश नहीं होता है। अर्थ--अपेक्षा न होने में भी प्रकृति
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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