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________________ मामवलीला ॥ हुआ है कि यदि किसी | वाक्य में न लौटनेका उनको गन्ध भी खाया है तो वहीं अपने वाग्जाल ने उनको छिपाने की कोशिश की है--देखो मत्यार्थप्रकाश के पृष्ठ २५५ पर स्वामीजीको सांख्यदर्शनके प्रथमसूत्र को लिखने की जरूरत पड़ी है जो इस प्रकार है-त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्ति 46 ޔ ९५३ कि स्वामीजी से प्रत्यंत शब्दका अर्थ लिखना रह गया बरण स्वामीजीने जानबझकर इस प्रकारकी सावधानी रक्खी है- देखो मृत्यार्थप्रकाशके पृष्ठ २४९ पर स्वामीजीने मुरडक उपनिषद्का एक जोक इस प्रकार दिया है:" भिद्यते हृदयग्रंथि -- शिवद्यन्ते सर्व संशयाः । क्षीयन्तेवास्य कर्माणि, तस्मिन्दृष्टे परावरे=' रस्यन्त पुरुषार्थः, अर्थात् पुरुषका अत्यन्त पुरुषार्थ यह है कि तीन प्रकारके दुःखोंकी अत्यन्त निवृत्ति करदे परन्तु दुःखों की प्रत्यन्त । र्णन वृत्ति तो तबही कहला सकती है। जब कि फिर दुःख किसी प्रकार भी प्राप्त न हो इस कारण हम सूत्रमें स्वामीजीको दुःखोंकी निवृत्तिके साथत्यन्तका शब्द खटका और इसको प्रपने मिद्धान्त के विरुद्ध समझा, स्वामी जीने तो अन्यथा अर्थ करनेका सहज मार्ग पकड़ ही रक्खा था इस कारण यहां भी इस सूत्र का अर्थ करते हुए - त्यन्त का अर्थ न किया और केवल यह ही लिख दिया है कि त्रिविध दुःखको हाकर मुक्ति पाना अत्यन्त पुरुषार्थ है- संस्कृत जानने बाले से पूठिये प्यारे भाइयो ! क्या स्वामी जी की कि इस लोक में सर्वकमका क्षय लिखा ऐसी चालाकी इमही कारण नहीं है । है वा केवन दुष्ट कर्मोंका ? और क्या इस लोक में कर्मोंके क्षय होनेका वहै परन्तु स्वामी दयानन्दजी की कर्मके क्षय होनेका कथन का सुहाता था क्योंकि वह तो कर्मों के क्षयसे मुक्ति नहीं मानते वरण मुक्तिको भी कर्मोंका फल स्थापित करते हैं और मुक्ति - वस्था भी कर्म कायम करना चाहते हैं इस कारण उन्होंने इस श्लोक के अर्थ में दुष्ट कर्मोंका ही क्षय होना लिखा जि सका भावार्थ यह हो कि श्रेष्ठ अर्थात पुण्य कर्म क्षय नहीं होते हैं । प्यारे प्रार्य भाट्यो ! यदि आप संस्कृत जानते हैं तो स्वयम् नहीं तो कि सी | कि वह जानते थे कि संस्कृतका प्रचार | न रहने के कारण संस्कृत पढ़ने बाले न हीं रहे हैं इस हेतु हिन्दी भाषामें हम जिस प्रकार लिख देंगे उसी प्रकार भोले मनुष्य वहकाये में छाजायेंगे - यह कस्मिक इतफाक की बात नहीं है लोक में कोई भी ऐमा शब्द है जिससे दुष्ट कर्मके अर्थ लगाये जामकें? और कृपा कर यह भी पूछिये कि कहीं इस लोक में परमेश्वर में वास करने का भी कघन है कि नहीं जो स्वामीजीने प्रथ में लिखदिया है ? |
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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