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________________ आगतलीला ॥ सत्य ही है और बुति, स्मृति शरद र्शन शास्त्रोंके अनुकूल ही है परन्तु यदि वह कुछ भी परीक्षा करें तो उन को महजड़ो में मत्यार्थप्रकाशका मायाजाल मालूम हो मकता है और उन का भ्रमजाल दूर होकर सच्चाईका मार्ग! | मिल सकता है- यद्यपि जैनशास्त्र धर्मरत्नों का भगहार है और उनके द्वारा सहजी में मत्यमार्ग दिखाया जा सकता है और युक्ति प्र माण द्वारा प्रज्ञान अन्धकार दूर किया जा सकता है परन्तु संसारके मीत्रोंको पक्ष और द्वेषने ऐना घंग है कि वह दूमरेकी बातका सुनना भी पसन्द नहीं करते हैं इस कारण अपने आर्य भाइयोंके उपकारार्थ हम उन्हीं के मान्य ग्रन्थोंसे ही उनका मिध्यात्व दूर करनेकी कोशिश कर रहे हैं जिससे उनको सत्यार्थप्रकाशकाबाग्जान मालूम होकर पक्षपात और द्वेषका श्रावरण दूर हो और सत्य और कल्याण मार्गके खोज की चाह उत्पन्न हो- प्यारे प्रार्य भाइयो! आप षट्दर्शनों को बड़े आदर की दृष्टिने देखते हैं और उनको प्रवर्तके अमूल्य रत्न समझते १३१ ने वर्णन किये हैं वह प्राचीन शास्त्रों के बिरुद्ध और धर्म श्रद्धा से भ्रष्ट करके जीवको संसार में रुलाने वाले हैं- मुक्तिसे लौटकर फिर संभार में छाने के ही उल्टं मिट्टान्तकी बाबत खोज लगाइये कि प्राचीन प्राचार्य इस वियमें क्या कहते हैं - मांख्यदर्शन में महर्षि कपिलाचार्यने मुक्तिमे लौटने के विषय में इस प्रकार लिखा है- "तत्र प्राप्त विवेकस्यानावृत्ति श्रुतिः”मांख्य । ० १ ॥ २८३ ॥ मांरूप में प्रविवेक से बन्धन और विब्रेक प्राप्त होनेको मुक्ति बर्णन किया है--इम सूत्र में कपिलाचार्यजी लिखते हैं कि, श्रुति अर्थात् वेदों में विवेक प्राप्त अर्थात् मुक्त जीवको फिर लौटना नहीं लिखा है- प्यारे प्रार्य भाइयो! मांख्यशास्त्र के बनाने वाले प्राचीन कपिलाचार्य यह बताते हैं कि बंदों में मुक्ति से लौटना नहीं लिखा परन्तु स्वामी दयानन्दजी वेदों और दर्शन शास्त्रों को भी उल्लंघन कर यह स्थापित करते हैं कि मुक्ति दशा से उकताकर संसार के अनेक विपथभोग भोगने के वास्ते जीवका मुक्ति से लौटना आवश्यक है और इस हो कारण मुक्तिको कारागारकी उपमा देते हैं- क्या ऐसी दशा में स्वामीजीका बघन माननीय हो सकता है ? ॥ प्यारे कार्य भाइयो ! यदि स्वामीजी के बचनों पर छापको इतनी श्रद्धा है - परन्तु शोक है कि प्राप उनको पढ़ते नहीं हो, उन रखों के प्रकाश से पने हृदयको प्रकाशित नहीं करते हो देखिये षट् दर्शनोंमें सांख्यदर्शन के कुछ विषय हम आपको दिखाते हैं जिस से प्रापको मालूम हो जावेगा किसत्यार्थप्रकाशमें जो सिद्धान्त स्वामी जी । |
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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