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________________ १५० भ्यास बढ़ाने के लिये राग द्वेष रहित के ध्यान और मनन की छावश्यकता जीव को हो तो उनकी कर्ता ईश्वरको निर्गुण बताकर उनकी उपासना का मनीला ॥ प्यारे भाइयो! यह जैन धर्म का सिद्धांत है जो मुक्त जीवों और साधुप्रों की ही भक्ति, स्तुति और उपास ना का उपदेश देता है परन्तु ऐसा उपदेश देना ओ ईश्वर सदा संमार के | मालूम होता है कि स्वामी दयानंद धंधा में लगा रहता है क्या उनका जी ने इस ही मय से कि यह सत्य निर्गुण रूप ध्यान जीव को हो मक्का | मिद्धांत ग्रहण करके संसार के जीव है ? और यदि अधिक ग्रात्मीक शक्ति कल्याया के मार्ग में न लग जायें मुक्ति रखने वाले तपस्वी पुरुष ऐमा ध्यान | दशा को निन्दा की है और मुक्ति बांध भी सकते हैं तो उन को ईश्वर | जीवों को यह कलंक लगाया है कि का महारा लेने ही की क्या आवश्य कता है यह धरती छात्मा में ही ए काय ध्यान क्यों न करेंगे ? यारे प्रार्य भाइयां ! संसारी जीवों को तो यह ही उचित है कि वह अ पनी प्रात्मिक शक्ति बढ़ाने, संसार के मोह जान से घृणा पैदा करने और रागद्वेष को मांगने का उत्पाद और आर्यमत लीला | ( सांख्यदर्शन और मुक्ति ) ( २३ ) साहम प्रपने में उत्पन्न करने और ह न्द्रियों और क्रोध मान माया लोभास्वामी दयानन्द सरस्वतीजी ने अपदिक कथायों को वश में करने के बा स्ते उन शुद्ध जीवों की भांत, स्तुति नेही दर्शनका मानने वाला बताया और उपासना करें उनके गुणों का है और उनही के कथनानुसार हमारे चिन्तन करें, उनकी जीवनी को विश्रार्थ भाई भी अपनेको घटदर्शनोंका चारें जिन्होंने सर्वथा रागद्वेषको त्याग कर और संसार के मोह जालको श्रिकुल छोड़कर और सर्व प्रकार की पाधियों और मेल को दूर करके स्व - मानने वाला बताते हैं परन्तु स्वामी दयानन्दजीने सत्यार्थप्रकाश में जो मिद्वान्त स्थापित किया है वह दर्शन सिद्धान्तों के बिस्कुन विरुद्ध स्वामी श्री sa और निर्मल होकर मुक्ति प्राप्त ] का मन पड़ना है। मिदान्त है-शोक है कि हमारे आर्य भाई केवल सत्याप्रकाशको पढ़कर यह समझने लगते हैं कि सत्यार्थप्रकाश में जो लिखा है वह करली है वा वन मन्यासियोंकी जो बिलकुल हम ही साधन में लगे हुए हैं । वह इच्छानुमार कल्पित शरीर बनाकर प्रानन्द भोगते हुने फिरते रहते हैं और उनकी फिर संसार में जाने की प्रावश्यकता बताकर मुक्ति को जेलखाना बताया है ।
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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