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________________ मार्यमतलीला ॥ इन तमाम बातों से यह ही विदित होता है कि स्वामीजीकी इच्छा और कोशिश अपने चेलों को खश करने ही की रही है वास्तविक सिद्धान्तसे उन को क मतलब नहीं रहा है । परन्तु इससे हमें क्या गरज स्वामीजीने जो मिट्टान्त लिखे हैं वह अपने मनसे सच समझ कर लिखे हों वा - पने चेलोंको बहकानेके वास्ते, इनको तो यह देखना है और जांच करनी है। कि उनके स्थापित किये हुए सिद्धान्त कहां तक पूर्वापर विरोधसे रहित और सत्य सिद्ध होते हैं और स्वामीजीके प्रकाश किये अके अमार बेदोंका मजमून ईश्वरका वाक्य है वा राजाकी ܡ प्रशंमाके गीतोंका संग्रह। इस हो जांच में सबका उपकार है और सबको सख मतों की इस ही प्रकार जांच करनी चाहिये । ॥ आर्यमत लीला ॥ ( २ ) स्वामीजी ने यह बात तो लिखदी कि सृष्टि की आदि में सृष्टि नियम के बिरुद्ध ईश्वरने बिना मा वापके सकड़ों और हज़ारों मनुष्य उत्पन्न कर दिये परन्तु यह न बताया कि उन्होंने पैदा होकर किस प्रकार अपना पेट भरा और पेट भरमा उनको किसने सिखाया ? घर बनाना उनको किस तरह जाया और कब तक वह वे घर रहे ? कपड़ा उनको कब मिला और कहां से मिला और कब तक वह नंगे ( ११ ) रहे ? कपड़ा बनाना उन्होंने कहां से सीखा ? अनाज बोमा उनको किसने सिखाया ? इत्यादिक अन्य हज़ारों बस्तु बनानी उनको किस प्रकार आई और कब खाई ? ॥ इन प्रश्नों को पढ़कर हमारे विद्वान् भाई हम पर इंसेंगे क्योंकि पशुओं को पेट भरना कौन सिखाता है ? इस के अतिरिक्त बहुत से पक्षी बय्या घादिक श्रद्भुतर घोंसला बनाते हैं, मकड़ी सुन्दर जाला पूरती है और वत्तखका अंडा यदि मुर्गी के नीचे सेया जाकर बच्चा पैदा कराया जाये और वह बच्चा मुर्गी ही के साथ पाला जावे तौभी पानी को देखते हो स्वयस् तैरने लग जावेगा - यह तो पशुपक्षियों की परन्तु पशुपक्षियों में इतना प्रबल ज्ञान नहीं होता है कि वह अपनी जातिके अनुसार पशुज्ञान से अतिरिक्त कोई कार्य कर सकें घा दशा त्वय्या जैसा घोंसला बनाता है वैसा ही बनायेगा उसमें सबति नहीं कर सक्ता है परन्तु मनुष्य में पशु से विशेष ज्ञान इस ही बात से सिद्ध होता है कि वह संसार की अनेक बस्तुओं और उनके गुण और स्वभाव को देखकर अनुमान ज्ञान पैदा कर ता है और वस्तुओं के गुणों का प्र योग करता है इस अपनी ज्ञान शक्ति के द्वारा श्राहिस्ता प्राहिस्ता मनुष्य बहुत उन्नति कर जाता है और करता रहता है - इस मनुष्य जाति को उन
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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