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________________ प्रायमतलीला ॥ - आयमत लीला। या है और अपने घेलों को मिखाया है कि स्वर्ग और नरक कहीं नहीं है, ( १८ ) कुम ही प्रकार मुक्ति का भी निषेध गत दो लेखों में हमने दिखाया है कर देने, और कह देने कि कुछ सुख कि, स्वामी दयानन्दन अंगग्य धर्मको दुःख होता है वह इस पृथ्वी पर ही नष्ट करने और संसार के विषय पापा ही रहता है । परन्तु मुक्ति को स्थायों में मनष्यों को फंभाने के वास्ते | पन करके उनको कारागार बताना बहिन्दुस्तान के जगत् प्रामद मिद्धांत के । हुन अन्यार है। विरुद्ध यह स्थापित किया है कि मुक्ति। क्या मक्ति में लीटी कर संमार में प्राप्त होने के पश्चात् भी जीव बंधन में फिर बापिम आने की आवश्यकता पता है और मनार में समता है । को दिखाने के वास्ते स्वामी जी की स्वामी जी को अपने इस अद्भुत और कोई भीर दृष्टान्त नहीं मिगता था, जो नवीन सिद्धान्त का यहां तक प्रेम हमा कारागार का दृष्टान्त देकर यह ममहै कि वह मुक्ति को जेलखाना बनाते | माया कि अनित्य मुक्ति तो ऐमी है हैं सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ २४१ पर स्वामी जैमा किमी को दो चार बरमके वास्ते जी लिखते हैं: कैद खाना हो जाये, और मियाद पूरी इस लिये यही व्यवस्था ठीक हैकि होने पर अपने घर पर फिर बापिम मुक्ति में जाना यहां मे पुनः माना ही चला प्राव और गित्य मुक्ति ऐमी है अच्छा है। क्या थोडं मे कारागार से जमा किनी को जन्म भरके वास्ते कंद मन्म कारागार दंड वान प्रासी प्रय-खाना हो जाये और घर वापिस पाने या फांसी को कोई अच्छा मानता है की उम्मेद ही ग र है, वा जसा किसी। जब वहां से पाना ही न होती सन्म को फांमी हो जावै कि वह फिर अपकारागार में इतना ही अंतर है कि ने घर वापिम हो न आमके ? ता. वहां मजरी नहीं करनी पड़ती और स्पर्य इसका यह है कि जिस प्रकार ब्रह्ममें लय होना समुद्र में डब मरना है। गृहस्थी लोग अपने घर पर अपने बाल पाठक गमा ! नहीं मानम स्वामीजी बच्चों में रहना पसन्द करते हैं और को मुक्ति दशा में क्यों इतनी घृणा जन्न खाने में फमना महा कष्ट ममझते हुई है कि उन्होंने उस को कारागार हैं, इम ही प्रकार जीवका मनध्य पशु और फांसी के समान बताया । यदि पक्षी प्रादिक अनेक शरीर धारण कस्वामी जी को मुक्ति ऐमी ही बरी रते हुव मंसार में विचरना अच्छा है, मालूम होती थी, तो शिम प्रकार - और मुक्ति का हो जाना महा कष्ट है न्होंने स्वर्ग और नरकका निषेध कि-' स्वामी जी के कथनानुसार मुक्ति में - -
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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