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________________ १०० भार्यमतलीला । काम नहीं लिया बरन धोके से काम | मेरे प्यारे भाइयो ! यदि आपने लिया और उम समय के मनुष्यों को स्वामी दयानंद जी के वेदों के भाग्य बहकाया कि दश घर्ष की कन्या का को पढ़ा होगा और पदि नहीं पढ़ा विवाह कर देना चाहिये इसके उपरांत तो जैनगजट में जो वेदों के विषय में बिबाह न करने से पाप होता है -य- लेख छपे हैं उनसे जान गये हो कि यपि उस समय के लोगों को उनका वेद कदाचित् भी ईश्वर कृत नहीं कहे. यह कृत्य उपकार नजर माया परंतु | जा सकते हैं बरस वह किसी विद्वान् । उसका यह जहर खिन्ना ( फैमा) कि मनुष्य के बनाये हुवे भी नहीं है पर इस ही के कारण सारा हिंदुस्तान नि- केवन भेड़ बकरी चराने वाले मूर्स ग-1 बल और शक्ति शून्य हो गया नीरवारों के गीत हैं। ननमें कोई विद्या। इमही के प्रचार के कारण व्याग विवाह को यात नहीं है परन्तु मत्यार्थ प्रकाश के रोकने में जो कठिनाई प्राप्त हो रही में स्वामी जीने वेदों को श्वरकृत सहै वह श्राप का मन ही जानता है। मझाया है और दुनियां भरकी विद्या प्यारे प्रार्यभाइयो ! जितने मन का भण्डार उनको बताया है । इसका मतान्तरोंका स्वामी जीने खगहन कि कारगा क्या : स्वामी दयानन्द जी जिया है और आप खगडन कर रहे हैं न्होंने स्वयम् वेदों का अर्थ किया उनके चलाने वाले उसही प्रकार परी-है क्या इस बात को जानते नहीं थे पकारी थे जिस प्रकार स्वामी दयान- कि वे कोई ज्ञान की पुस्तक नहीं है? न्द जी और उस समयके मनोगोंने उन बह मत्र कछ जानते घे परस्त मीधे को ऐमा ही परोपकारी मानाथा ना मच्चे रास्ते पर चलना उनका उद्देश कि स्वामी दयानन्द की माने जाते हैं। नहीं था वह अपना परम धर्म इस ही परन्त जिन परोपकारियों ने मत्य में ममफते थे कि जिस बिधि हो से काम लिया यद्यपि उन के पी पना मननय निकामा जावे । वह जा. पकार का प्रचार कन हुश्रा पतु मते घ कि हिन्दस्तान के प्रायः मई वह सदा के वास्ते परोपकारी रहेंग | दी मनुष्य वेदी पर श्रद्धा रखते हैं इस और जिन्होंने काशीनाथ की त कारण उनको भय था कि वेदों के रह बनावट से काम लिया और ममय निबंध करने में कोई भी उनकी न की जमरन के अनुसार मनघडंत मि- मनेगा हम कारण उन्हों ने घेदों की दांत स्थापित करके काम निकाला 3. प्रशमा की। परंतु सच पहो तो इस ने यद्यपि उम समय के वास्ते उ-काम में उन्होंने आर्य समाज के पकार किया परंतु वे सदा के वास्ते स्त माघ दुश्मनी की पोंकि प्राण कल अधर्म रुपी विष फला गये हैं। हिन्दी भाषा और संस्कृत विद्या का don
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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