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________________ आर्यमतलीला ॥ • प्यारे प्रार्य भाइयो ! यदि आप कुछ सुनना नहीं चाहते हैं क्योंकि धर्म के सिद्धान्त और उन के लक्षणों आप के हृदय में यह दृढ़ प्रतीति है पर ध्यान देंगे तो आप को मानम कि स्वामी जी ने हिन्दुस्तान का बहोजावेगा कि स्वामी जी का यह न-हुत उपकार किया है और जो कुछ वीन सिद्धान्त धर्म की जड़ पूरी तोर धर्म का प्रान्दोलन हो रहा है वह एन । पर उखाडकर फेंक देने वाला है परन्तु ही की कृपा का फल है। प्यारे भाक्या किया जाय पाप तो धर्मकी तरफ इयो! यह आप का ख्याल एक प्रध्यान ही नहीं देते हैं ? आप ने - कार बिल्कल मच्चा है और हम भी पना सारा पुरुषार्थ संमार की ही वृद्धि | ऐभा ही मानते हैं परन्तु जरा ध्यान में लगा रक्खा है। प्यारे आर्य भाइ-दकर बिधारिये कि मंमार में जो ह. यो ! संमार में अनेक प्रकार के अनन्तजारों मत फैल रहे हैं या जो लाखों जीव हैं परन्त धर्म को समझने और मत फैलते रहे हैं उन मतों के चलाने धर्म माधन करने की शक्ति एक मात्र वाले क्या परोपकारी नहीं थे? और मनुष्य को ही है नहीं मानम श्रापका क्या उम ममय उनसे संमार का उप और हमारा कौन पुरय उदय है जो कार नहीं हवा है ? परत बहतसे धर्म यह मनुष्य जन्म प्राप्तहो गया है और के बनाने वाले परोपकारियों का नहीं मालूम कितने काल मनुष्य शरीर | परोपकार उभ सगय के अनुकूल होने | के अतिरिक्त अन्य कीड़ी मकोड़ी कु-से थोडे ही दिनों तक रहा है पश्चात् | ता बिल्ली आदिक जीबों के शरीर धा वहही उनके सिद्धांत विषसे समाम रण करते हुवे रुलते फिरते रहे हैं ? | हमारा यह ही अहो भाग्य नहीं है | हानिकारक हो गये हैं दृष्टान्त रूप बि चारिये कि आपके ही कथनानुसार उस है कि हमने मनुष्य जन्म पाया बरगा हमसे भी अधिक हमारा यह अहो समय में जब कि यवन लोग हिंदों भाग्य है कि हम ने हिन्दुस्तान में ज की कन्यानोंको जबरदस्ती निकाह में भ्म लिया जहां ऋषि प्रणीत अनेक | लेने (विवाहने) लगेतोकाशीनाथजी सत् शाख जीवात्मा का ज्ञान प्राप्त इम प्राशय का श्लोक घड़के कि देश कराने वाले हमको प्राप्त हो सकते हैं | वर्ष की कन्या का विवाह कर देना इस कारण हमको यह ममय बहुत ग़नी-|चाहिये हिन्दों का कितना बड़ा मत समझना चाहिये और अपने कल्याशा में अवश्य ध्यान देना चाहिये और भारी उपकार किया परन्तु वास्तव में सत्य सिद्धान्तोंकी खोज करनी चाहिये। यह उपकार नहीं था अपकार था और । ज्यादा मुशकिल यह है कि आप पूरीरदुश्मनीकी थी क्योंकि काशीनाथ लोग स्वामी दयानन्द जी से विरुद्ध जी ने सत्य रीति और सत्य शिक्षा से । - -
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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