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________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ६३ व ग्रहणीय) वस्तुका भेद निश्चित रूपसे जानना। ऐसे ज्ञानसे वृद्ध ज्ञानवृद्धाः । ऐसे वृत्तस्य तथा ज्ञानवृद्ध पुरुषकी सेवा करना चाहिए । गुणवानकी सेवा करनेसे गुणी होते हैं । जैसे दरिद्री की सेवा करनेसे दरिद्री तथा धनवानकी सेवा करनेसे धनवान बनते हैं। सम्यग् ज्ञान व सम्यक् क्रियारूप गुणके पात्र ( या इस गुणके धारक ) पुरुष सेवा करने योग्य है | उनकी अच्छी सेवा करनेसे वे अवश्य सदुपदेशरूपी उत्तम फलको प्रदान करते है । कहा भी है- , " उपदेशः शुभो नित्यं दर्शनं धर्मचारिणाम् । स्थाने विनय इत्येतत् साधुसेवाफलं महत्" ॥३९॥ " - शुभ उपदेशका मिलना, धार्मिक पुरुषोंके नित्य दर्शन, और उचित स्थान पर विनय करना - ये सावु सेवाके महान् फल हैं । तथा - परस्परानुपघातेनान्योऽन्यानुवद्वत्रिवर्गप्रतिपत्तिरिति २७ ॥ ५० ॥ मूलार्थ - परस्पर गुंथे हुए धर्म, अर्थ व कामकी परस्पर विरोध विना सेवा करे ॥ ५० ॥ विवेचन - धर्म, अर्थ व काम यह त्रिवर्ग है। धर्म- जिससे सद्गति व मोक्षकी प्राप्ति हो । धर्म ही अर्थ व कामकी भी प्राप्ति कराता है | अतः तीनों पुरुषार्थों के देनेवाले धर्मका सदा पालन करे। अर्थ - जिससे व्यावहारिक व पारमार्थिक सव प्रयोजनोंकी सिद्धि
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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