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-६० : धर्मविन्दु
अत शारीरिक बलकी हानि न हो ऐसे सब प्रकारसे यत्न -करना चाहिये । यदि कभी किसी रीतिसे बलका हांस हो जाय तो वह 'विषं व्याधिरुपेक्षितः ' - व्याधिकी उपेक्षासे वह विष समान हो जाता है ऐसा सोच कर शीघ्र ही उसकी प्रतिक्रिया - उसके मिटानेका उपाय करना चाहिये और पुन कभी भी उपेक्षा न करे । मुख्यतः - वीर्यनाशसे व्याधि उत्पन्न होती है, अतः उस ओर ध्यान देना चाहिये ।
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तथा - अदेशकालचर्यापरिहार इति २३ ||४५॥
मूलार्थ - और अयोग्य देश कालका परिहार करे || ४५|| 'विवेचन - जिस देशमें चोर आदिका उपद्रव हो, जहां आचार विचार हीन व मलिन हों, लडाई भादि होती हो, इसलोक व परंलोकके लिए अहित होता हो अथवा दुष्काल व महामारीका समय हो ऐसे देश तथा ऐसे समय में रहना अयोग्य है, उसका त्याग करे । यहां शास्त्रकार शरीर रक्षण पर जोर देते हैं, यद्यपि वे शरीरको तुच्छ समझते थे क्योकि शरीर ही धर्मका प्रथम व उत्तम साधन है।
तथा-यथोचितलोकयात्रेति २४ ||४६ ||
सूलार्थ - योग्यता अनुसार लोक व्यवहार करना चाहिये ॥ ४६ ॥
विवेचन - यथोचित - जैसा उचित हो, योग्य हो, लोकयात्रा लोगोंके चित्तको अनुसरण रूप व्यवहार ।
हमको हमारी येग्यतानुसार यथोचित लोक व्यवहार में प्रवृत्ति करना चाहिये। उसका उल्लंघन करनेसे लोगोंके चित्तकी विराधना