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________________ गृहस्थ सामान्य धर्म: ५५ विवेचन-तदौचित्यं-देव आदिकी औचित्यपूर्वक सेवा-पूजा आदि करना उत्तम, मध्यम आदि भेदसे, अवाधनं--उसका उल्लंघन नहीं करना । उत्तमनिदर्शनेन-अन्य लोगोसे अति ऊचा व्यवहार करनेवाले उत्तम-वे भी परोपकार-प्रिय भाषण आदि गुणोरूपी मालाके मणकोसे अलंकृत मनुष्य है-उनके उदाहरणसे । देवादिकी सेवामें उनके औचित्यका पालन करे। पात्रके मेदके भनुसार भक्ति भेद होता है । सेवा उत्तम, मध्यम व जघन्य तीन प्रकारकी है। औचित्यका उल्लघन नहीं करना चाहिये । उसका उलंघन करनेसे शेष-गुण होते हुए भी नाश हो जाते हैं। कहा है कि "औचित्यमेकमेकत्र, गुणानां राशिरकतः। विषायते गुणग्रामः, औचित्यपरिवर्जितः ॥ ३९॥ --औचित्यको एक ओर तथा अन्य सारे गुणोंकी राशिकी एक भोर, तब भी औचित्यके विना सारी गुणराशि विषमय हो जाती है। मत: सबका योग्य सन्मान करे। ___ उत्तम पुरुषोंके उदाहरणसे यह औचित्य गुण अच्छी तरह जाता है। उनके उदाहरणके अनुसार कार्य करनेवाले ऊंचे व उदार मनवाले पुरुष स्वप्नमें भी विकृत प्रकृतिके नहीं होते । इस तरह देवादिकी सेवा हमेशा करे, विशेषत भोजनके समय । तथा-सात्म्यतः कालभोजनमिति ॥४१॥ . मूलार्थ-और अपनी प्रकृतिके अनुकूल योग्य समय पर भोजन करे ॥४१॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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