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________________ गृहस्थ सामान्य धर्म .. करना और इनके बलसे अन्य परं प्रहार करना ही 'मद' है। इसके अलावा लोभमद; तपमद, व जातिमद और है। इस प्रकार आठ मेद होते हैं । मद यह एक नशा सा है जो इन सब कारणोंसे या किसी भी एक या दोके कारण आ सकता है । वैभव या रूपका मद, मनुष्यको कई अनर्थोकी ओर प्रेरणा करता है। यह सब वस्तुएँ नाशवान हैं। इनका मद करना सर्वथा अनुचित है। प्रमु महावीरने.भी जब कुलमद किया तो नीच गोत्रमें जन्म लेना पडा । इन सबका फल बुरा है अतः इसका सर्वथा त्याग करना चाहिए। • हर्ष- यह छठा शत्रु है। इसे आत्माके आनंदके साथ मिलाना नहीं चाहिए- दूसरेके कष्ट आदिसे खुश होना हर्ष है। आत्माका आनंद प्रेम स्वभाव है। हलके विचारोंसे खुश होनेसे कर्म बन्धन होता है। हानिनिमित्तमन्यस्य दुःखोत्पादनेन स्वस्वस्य द्यूत 'पापद्धर्याद्यनर्थसंश्रयेण वा मनप्रीतिजनना हर्षः" । -अकारण किसीको कष्ट देकर और स्वयं जुआ खेलकर, शिकार, वेश्यागमन आदि व्यसनोंका सेवन करके मनको प्रीति व 'भानंद देने यो खुश होनेको 'हर्ष' कहते हैं। . -इस-हर्षमें जो अनर्थकारी है तथा स्वाभाविक आनंदमें जो आत्मासे स्फुरित होता है अथवा शुभ कर्म करनेसे मनसे प्रगट होता है बहुत भेद है। यह मानंद स्वभाविक है। शुभ कर्मों में हर्ष या आनंद करनेसे पुण्यका ही उपार्जन होता है पर ऐसा हर्ष निससे स्वियं किसीको कष्ट देते हैं' या कष्टमें खुश होते हैं. त्याज्य है।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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