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________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : २९ तथा-शिष्टाचरितप्रशंसनमिति ।।१४।। मूलार्थ-और साधुचरित पुरुषोंकी प्रशंसा करते रहना चाहिए। विवेचन-शिष्टचरित- सदाचारवाले वृद्ध व ज्ञानी जनोंके पास रहकर जो शिक्षा प्राप्त करते है या प्राप्त की है वे मनुष्य शिष्टजन है उनका चरित्र व आचरण सिष्टचरित है, उसकी प्रशंसा करे। जैसे "लोकापवादभीरुत्व, दीनाभ्युद्धरणादरः। कृतज्ञता सुदाक्षिण्यं, सदाचारः प्रकीर्तितः ॥१०॥ सर्वत्र निन्दासंत्यागों, वर्णवादश्च साधुषु। । आपद्यदैन्यमत्यन्तं, तद्वत् संपदि नम्रता ॥११॥ प्रस्तावे मितभाषित्वमविसंवादनं तथा । प्रतिपन्नक्रिया चेति, कुलधर्मानुपालनम् ॥१२॥ असव्ययपरित्यागः, स्थाने चैव किया सदा। प्रधान कार्य निर्वन्धः, प्रमादस्य विवर्जनम् ॥१३॥ लोकाचारानुवृत्तिश्च, सर्वत्रचित्यपालनम् । प्रवृतिर्गहिते नेति, प्राणैः कण्ठगतैरपि" ॥१४॥ । (योगविन्दु १२६-१३०) ---लोकापवादसे भय, दीनजनोको उद्धार, कृतज्ञता, दाक्षिण्ययह सदाचार कहलाता है। सबकी निन्दाका त्याग, साधु व सज्जनोकी प्रशंसा, आपतिमें भी हिंमत, तथा सुखमें नम्रता रखना। प्रसंगोचित बोलना, किसीसे भी विरोध न करना, अंगीकृत कर्म
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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