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________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४४३ रागादि त्रिदोषके उपस्थित रहनेसे आत्माका सत्य या यथार्थ मुख नहीं दीखता । इसका कारण यह है कि त्रिदोषसे आत्माका 'सत्य स्वरूप प्रगट होनेके बदले अन्यथारूप दीखता है । जैसे वात, पित्त व कफके त्रिदोषके कारण जब शरीरको संनिपात होता है तब शरीरकी सातों घातुएं रस आदि अपना कार्य छोड देती है और जो यथार्थ कामभोग, मनःसमाधि आदिका कोई सुख नहीं मिलता, उसी प्रकार राग, द्वेष व मोहके त्रिदोपसे भावसंनिपात होता है। उसी प्रकार इस त्रिदोषसे सम्यग्दर्शनादि गुण मलिन हो जाते हैं और राग, द्वेष व मोहके मिटनेसे जो सुख होना चाहिये वह सुख प्राप्त नहीं होता । इस त्रिदोषसे आ माका वास्तविकरूप आच्छादित हे कर स्वाभाविक सुख नहीं मिलता। क्षीणेषु नदुःख, निमित्ताभावादिति ॥१३।। (४९४) मूलार्थ-त्रिदोप क्षयसे दुख नहीं होता, क्योंकि दुःखकेनिमित्तका अभाव होता है ॥१३॥ विवेचन-रागादि त्रिदोषके क्षय हो जाने पर भाव संनिपातका होनेवाला दुःख नहीं होता । इसका कारण यह है कि निमित्त या कारण जो रागादि दोप है वे नहीं होते । इस त्रिदोषके नाश होनेसे आत्माका स्वाभाविक गुण प्रगट होता है । आत्यन्तिकभावरोगविगमात् परमेश्वरताऽऽप्तेस्तत् तथास्वभावत्वात् परमसुखभाव इतीति ॥१४॥ (४९५)
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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