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________________ ४२० : धर्मविन्दु परिवार आदि भोग साधन भी उसे सुख के साधन होते हैं, दुःखके कारणभूत नहीं । वे शुभ कर्मके उदयसे प्रयत्न बिना खींचकर आते हैं । मोक्षका उद्यम करते हुए प्रसंगवश भोगके साधन ऐसे ही मिलते है जैसे गेहूं की खेती मे घास । राजा भरतकी तरह उसको आसक्ति नहीं होती । पुण्यानुबंधी पुण्यके उदयसे उसकी अशुभ मार्ग में प्रवृत्ति नहीं होती । इससे भोगके साधन उसे दुःखरूप न होकर सुखके कारणभूत ही होते हैं । कुगतिमं पड़नेके कारणरूप अशुभ कर्मप्रकृतिरूप कर्मबंधका अभाव होनेसे भोगसाधन सुख साधन होते हैं क्योकि उसे पुण्यानुबंधी पुण्यका उदय है । अशुभपरिणाम एव हि प्रधानं बन्धकारणम्, तदङ्गतया तु बाह्यमिति ॥३०॥ (४७३) सूलार्थ - अशुभ परिणाम ही बंधका मुख्य कारण है उससे ही बाह्य (अंतःपुर आदि) कारण बंधके हेतु होते हैं ||३०|| विवेचन-- प्रधान- मुख्य, बन्धकारणं - नारकादि फलवाले पापकर्म के बन्धनका निमित्त, तदङ्गतया तु अशुभ परिणामके कारण ही, बाह्यम्--अंतःपुर आदि बध कारण है । अशुभ परिणाम ही पाप बन्धका मुख्य कारण है । पापकर्मका बन्धन मनके अशुभ परिणामसे विचार या परिणति से होता है और नगर, अंतःपुर आदि बाबा भोगके साधन तो मात्र अशुभ परिणामके निमित्त मात्र बनते हैं अतः वे भी बंध कारण गिने गये है पर वस्तुतः अशुभ परिणाम ही बंधका कारण है ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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