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________________ धर्मफल देशना विधि : ४१७ . ऐसे सब अशुभ कर्मके नाश होनेसे सद्गति, सौभाग्य व उत्तम कुल आदिकी प्राप्ति होती है। ऐसा वेदनीय कर्मके नाशसे होता है। शुभतरोदयादिति ॥२५॥ (४६८) मृलार्थ-अधिक शुभ कर्मके उदयसे ॥२५॥ विवेचन-शुभतराणाम्-अति प्रशस्त कर्मवे, उदयात्-परिपाकले। अधिक शुभ कौके उदयसे अशुभ कर्म स्वयमेव नष्ट हो जाते हैं। अतिशय प्रशस्त कर्मके परिपाकसे बुरे कर्मोंका नाश हो जाता है। प्रशस्त कर्मका उदय किस प्रकार होता है ! उत्तर देते हैं जीववीर्योल्लासादिति ॥ २६॥ (४६९) मूलार्थ- जीवके वीर्यकी अधिकतासे (शुभ कमोदय होता है ॥२६॥ विवेचन-जीववीर्यस्य-शुद्ध सामर्थ्यरूप जीवके वीर्यकी, उल्लासात्- अधिकतासे । जीवकी शुद्ध शक्ति अतिशय बढनेसे शुभ कर्मका उदय होता है। आत्मा अनंत वीर्यवाला है पर वीर्य दब गया है। आत्मशक्ति शुभ मार्गमें लगानेसे शुभ कर्मोदय होता है। परिणतिवृद्धेरिति ॥ २७॥ (१७०) मलार्थ- जीवकी परिणतिकी वृद्धिसे ॥२७|| विवेचन- परिपतेः- उसके शुभ अध्यवसायकी, वृद्धःनढनेसे, उत्कर्षसे ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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