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________________ ८: धर्मविन्दु आदि सब दोषोको हटानेवाला, पारम्पयेण- परंपरासे, अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थानसे क्रमशः अन्य गुणस्थानकों के आरोहणसे, सुदेवत्व और मनुष्यन्वको अनुक्रमसे प्राप्त करके मोक्षप्राप्ति करना, साधका-देनेवाला-यह मोक्षकी ओर ले जानेवाला साधन है। धर्मसे सब प्रकारकी इहलौकिक व पारलौकिक वस्तुएँ प्राप्त होती है । धनकी इच्छावालोंको सब प्रकारका धन प्राप्त होता है। अन्य सुख व योग्य वस्तुओकी कामनावालेको वे वस्तुएँ प्राप्त होती है । धर्म करनेसे पुण्य कर्मबन्ध होता है, उससे प्रत्येक प्रकारका शुभ फल मिलता है। इन सब क्षणिक सुख व लाभोको बता कर फिर उत्कृष्ट फल बताते हैं। अनुक्रमसे यही धर्म मोक्ष सुखको देनेवाला है । धर्मसे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है, अन्यथा नहीं । 'अविरत सम्यग्दृष्टि नामक गुणस्थानक को प्राप्त करनेमें धर्म ही सहायक है | उस चौथे गुणस्थानकसे ही उत्तरोत्तर चढकर मोक्ष प्राप्ति हो सकती है। अतः धर्म ही मोक्षका साधक है। वचनाद्-जो कहा जाय वह वचन या आगम, उसमेंसे शब्दोंको लेकर, यदनुष्ठानं-उन वचनों के अनुसार जो आचरण । इस लोक व परलोकमे हेय (त्याज्य) व उपादेय (ग्रहण करने योग्य) वस्तुओं-कार्योंके त्याग व ग्रहणकी प्रवृत्ति अनुष्ठान है । वह शास्त्रवचन-अविरुद्धात्-परस्पर विरोध रहित, कप, छेद व तापकी परीक्षासे सोनेकी तरह शुद्ध हो चुका है और वह अविरुद्ध वचन
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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