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________________ , ३७६ : धर्मचिन्दु कर्मसे 'निवृत्ति पाते हैं। वे ऐसे अनर्थकारी कार्य नहीं करते, इतना ही नहीं अन्य जीवोंकी रक्षा व उपकार करनेमें सर्वदा तत्पर रहते हैं। 'मेतार्य मुनिका दृष्टान्त इस बारेमें प्रसिद्ध है । "वे भिक्षाके लिये एक सूनारके यहां गये जो सोनेके जो बना रहा था। वह भिक्षा 'देनेके लिये अंदरसे लाने गया 'इतनेमें उसका मुर्गा कई जो निगल गया । मुंनि मौनव्रत रख कर चले गये । सूनारने जी चुराये हुए जान कर मुनिको पकडा । उनके नाम न बताने पर सिर पर गिला चमडा बांध कर सूनारने उनकी मृत्युका प्रारंभ किया। स्वयं कष्ट उठा कर भी हिंसाके भयसे मुर्गाका नाम न-बताया। ऐसे महासत्त्ववाले महापुरुष अब भी. देखे जाते है जो जीवोंकी रक्षा तथा अन्योंको धर्ममार्ग में प्रवृत्त व स्थिर करने आदिका उपकार करते हैं। इस विषयकी समाप्ति करते हुए कहते हैइति मुमुक्षोः सर्वत्र भावनायामेव यत्नः . श्रेयानिति ॥३७॥ (४०४) - मूलार्थ-इस प्रकार मुमुक्षु सर्वत्र भावनामें ही यत्न करें यही श्रेयस्कारी है ॥३७॥ विवेचन-अत: सब कार्योंमें, सब अनुष्ठानोंमें यति उच्च प्रकार'की भावना रखे यही श्रेयस्कारी मार्ग है । भावनाज्ञान ही सद्विचारोंका प्रेरक ज्ञान है। सद्विचार ही सत्कार्य करनेवाले हैं । भावनाज्ञान प्रतिक्षण मनमे रखे । भावनाकाही आदर करना बहुत प्रशंसनीय है। तदभावे निसर्गत एव सर्वथा दोषो परतिसिद्धेरिति ॥३४॥ (४०५)
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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