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________________ ३६० : धर्मविन्दु - मूलार्थ और निरपेक्ष यतिधर्म के योग्य पुरुषको भी अंगीकार करते समय अन्य जीवोंकी उत्कृष्ट सिद्धि करानेके लिये अन्य पुरुषका अभाव हो तो निरपेक्ष यतिधर्मका अंगीकार करनेका प्रतिषेध है अतः परहित ही उत्तम मार्ग है ॥ १० ॥ विवेचन - तत्प्रतिपत्तिकाले - निरपेक्ष धर्म अंगीकार करनेके समय, परपरार्थसिद्धौ-अन्य जनों के सम्यग्दर्शन आदि उत्तम प्रयोजनकी सिद्धि करने में, तदन्यसंपादकाभावे - जो निरपेक्ष यतिधर्मके योग्य है उससे दूसरा साधु जो दूसरोको ज्ञान दे न सकता हो तो, प्रतिपत्तिप्रतिषेधात् - अंगीकार करनेका निषेध है । * कोई साधु निरपेक्ष यतिधर्म पालन करनेके योग्य हो, और अन्य जीवोको सद्द्बोध से सम्यग्दर्शन आदिकी प्राप्ति करानेवाले दूसरे साधु या व्यक्तिका अभाव हो तो वह साधु निरपेक्ष यतिधर्म अंगीकार न करे, उसे निषेध है । अत परोपकार ही अधिक उत्तम मार्ग है। सापेक्ष यतिधर्मकी योग्यता के लक्षण कह कर निरपेक्षके लिये कहते हैं--- वादिपूर्वधरस्य तु यथोदितगुणस्यापि साधुशिष्यनिष्पत्तौ साध्यान्तराभावतः सति कायादिसामर्थ्यं सद्वीर्याचारसेवनेन तथा प्रमादजयाय सम्यगुचितसमये आज्ञाप्रमाण्यतस्तथैव योगवृद्धेः प्रायोपवेशन वच्छ्रेयान्निरपेक्षयतिधर्म इनि ॥ ११॥ (३७८)
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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