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________________ ३५८ : धर्मविन्दु । पालन करनेवालेको उत्कृष्ट श्रुतज्ञान सूत्र व अर्थते कुछ कम दश पूर्वका होता है और जघन्यतासे नवम पूर्वकी तीसरी वस्तु (प्रत्याख्यान नामक पूर्वकी आचार नामक तीसरी वस्तु) तक श्रुतज्ञान होता है । इन वचनोंसे सपूर्ण दश पूर्वधारीको निरपेक्ष यतिधर्मके स्वीकारका निषेध सिद्ध होता है । सपूर्ण दश पूर्वधर 'अमोघवचनी' होते है अतः उनका वचन तीर्थकर समान होता है अतः वे धर्मदेशनाद्वारा भव्य जीवोंका उपकार करके तीर्थवृद्धि करते हैं अतः प्रतिमा आदि कल्पको अंगीकार नहीं करते । यह निषेध किस लिये किया है (निरपेक्ष यतिधर्मका ?) कहते है परार्थसंपादनोपपत्तेरिति ॥५।। (३७२) मूलार्थ-परोपकार करने का अर्थ सिद्ध होता है ॥५॥ विवेचन-सापेक्ष यतिधर्मका पालन करनेसे परोपकार होता है अतः निरपेक्षका निषेध है । दश पूर्वधर तीर्थक आधारभन हैं अतः वे सापेक्ष यतिधर्मका पालन करके जगत्के कल्याणके मार्गको स्वीकार करते हैं। यदि परोपकार होता है तो भी क्या कहते हैतस्यैव च गुरुत्वादिति ॥६॥ (३७३) मूलार्थ-परोपकार ही सबसे उत्तम है ॥६॥ विवेचन-धर्मके सब अनुष्ठानोंमें परोपकार सबसे गुरुतर है। परोपकार ही सर्वोत्तम है । वह उत्तम कैसे ८ कहते है सर्वथा दुःखमोक्षणादिति ॥७॥ (३७४) मूलार्थ-इससे सब दुःखोंमेंसे मुक्ति होती है ॥७॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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