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________________ ३५६ : धर्मविन्दु करनेवाला, जीवोंके लिये उत्तम मोक्षरूप प्रयोजनको साधनेवाला, सामायिकवाला, जिसका आशय शुद्ध पवित्र) है, उचित प्रवृत्ति करनेवाला, और शुभ योगको आत्माके साथ जोडनेवाला जो पुरुष (या साधु) हो उसके लिये सापेक्ष यतिधर्म ही श्रेयस्कर है। विवेचन-तम-विषय विभागके वर्णनमें, कल्याणाशयस्यजिसके परिणाम-भाव अरोग्यरूपी मुक्तिनगरको ले जानेवाले हैं या जो सर्व जीवोंका कल्याण करनेका आशय रखता है, शूतरत्नमहोदधे:-जैसे समुद्र, रत्न रहते हैं वैसे ही उसके हृदयमें सिद्धांत. या शास्त्रके रल हों, अर्थात् ज्ञानी हो, उपशमादिलब्धिमत:उपशम आदि हित करनेमे तत्पर या उनके हितको ही धन समझनेवाला, अत्यन्तगम्भीरचेतसः-उसके मनमें हर्ष या विषाद क्या है उसको बहुत निपुण मनुष्य भी न समझ सके या वह ये चित्तविकार उसमें न पा सके ऐसा गंभीर हृदयवाला, तथा दूसरेकी गुप्त बात प्रगट न करे ऐसा बडे मनवाला, इससे ही प्रधानपरिणते:सर्वोत्तम आत्मपरिणतिवाला, विधूतमोहस्य-मोह अर्थात् मूढता तथा आलसकी मुद्रासे रहित, परमसत्त्वार्थकतः उच्च वस्तु मोक्षके वीजरूप सम्यत्व आदिका अन्योंमें प्रयोजन करनेवाला, या लोगोमें सम्यक्त्व उपजानेवाला, 'सामायिकता-सबके प्रति समभाव तथा माध्यस्थ्यदृष्टि रखनेवाला, विशुद्ध्यमानाशयस्य-शुद्ध आशय अर्थात् शुक्ल पक्षके चंद्रमाक्री तरह प्रतिक्षण उज्ज्वल हृदयवाला, यथो; चितप्रवृत्ते:-प्रसंगके योग्य प्रयोजन या कार्य करनेवाला या कालो--
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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