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________________ छट्ठा अध्याय। निरपेक्ष तथा सापेक्ष यतिधर्मकी व्याख्या नामक पाचवें प्रकरणकी व्याख्या करके अब छट्टे अध्यायकी व्याख्या करते हैं । यह प्रथमसूत्र हैआशयाधुचितं ज्यायोऽनुष्टानं सूरयो विदुः । साध्यसिद्धयङ्गमित्यस्माद् यतिधर्मो-द्विधा मंतः॥३१॥ मूलार्थ-आशयसे उचित अनुष्ठानको आचार्य श्रेष्ठ कहते हैं। वह साध्या (मोक्ष) की सिद्धिका अंग है अतः यतिधर्म (सापेक्ष और निरपेक्ष) दो प्रकारका है। .. विवेचन-आशयस्य-चित्तकी वृत्ति आदि, ज्ञान, शरीरवल, परोपकार करनेकी शक्ति व अशक्ति, उचित-उसके योग्य, ज्यायः अनुष्ठान-बहुत प्रशस्त, जैनधर्मकी सेवारूप आचरण, साध्यसित्संग-साध्य जो सब क्लेशको हरनेवाला-मोक्ष, उसकी प्राप्तिका कारण, तस्माद-इस कारण, द्विधा-दो प्रकारका । . . -: -हृदयके आशय, ज्ञान, शरीरके संहनन, सामर्थ्य तथा परोपकार करनेकी मशक्ति अथवा न कर सकनेके सामर्थ्यसे-जो जैनधर्मकी सेवारूप आचरण किया जाता है उसे सूरिगण-आचार्य बहुत प्रशस्त.
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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