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________________ ३३० धर्मविन्दु व अन्य किसीको राग उत्पन्न न करे ऐसी वस्तु या सामग्री ग्रहण करे व रखे । वस्न, पात्र आदि वस्तुएं सब योग्य प्रमाणमे शस्त्रोक्त तथा आवश्यकतानुसार ग्रहण करे । इन उपकरणोंमें किसीका राग उत्पन्न न हो। यदि अधिक हो तो उनका त्याग भी उचित है। उपयोगसे अधिक सामग्री हानेसे ममता बढती है तथा संयमपालनमें वाधा आती है । कहा है कि "धारणया उवभोगो, परिहरणा होइ परिमोगों" ॥१८॥ -वन, पात्रादिकका धारण करना तथा त्याग करना क्रमशः उपभोग व परिभोग कहलाता है अत अधिक वस्तुका परिभोग और त्याग कर। तथा-मूछात्याग इति ॥५१॥ (३२०) मूलार्थ-और मूर्छाका त्याग करे ।।५१॥ विवेचन-सामग्री कम होनेके साथ उसमे ममत्व तो जरा मात्र भी न रखे। जहा ममत्व भावना है चाहे सामग्री कम हो या अधिक वहा परिग्रह है और पाचवे महाव्रतका खण्डन होता है । सब बाह्य व अभ्यतर वस्तुओंमे जैसे शरीरका बल आदि, ममता व मूर्खाका त्याग कर। तथा-अप्रतिवद्धविहरणमिति ॥५२।। (३२१) मलार्थ-और प्रतिबंधभाव रहित विहार करे ॥५२॥ विवेचन-देश, ग्राम, कुल आदि किसीम ममता न रखे। मूर्छा भावनाका त्याग करके विहार करे। साधुलोक कल्याणके
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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