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________________ यतिधर्म देशना विधि : ३२७ ऐसे आसन पर बैठनेसे स्त्रीके संयोगसे उत्पन्न उष्णताके स्पर्शसे साधु या ब्रह्मचारीका मन विह्वल हो सकता है। अतः उसी स्थान पर तुरंत नहीं बैठना। इन्द्रियाप्रयोग इति ॥४३॥ (३१२) मूलार्थ-स्त्रीके अवयवोंकी तरफ इंद्रियोंका प्रयोग न करे ॥४॥ विवेचन-इन्द्रियाणां-नेत्र आदि इन्द्रियोसे स्त्रीके शरीरके गुह्य, साथल, मुख, कान, स्तन आदि अवयवांको देखना, छुना मादि, अप्रयोग:-प्रयोग नहीं करना । ब्रह्मचारी स्त्रीको विषयभावसे देखे नहीं । स्त्रीके इन अवयवाको विषयभावस देखनेसे, उनको निरखनेम कामक्री उत्तेजना होती है। देखनेसे मनमे कामभाव पैदा होता है। किसी भी अंगका स्त्री पर प्रयोग नहीं करना-जैसे स्पर्ग, नेत्र, हाथ या अन्य कर्मेन्द्रियकासवका प्रयोग वर्जित है। कुडयान्तरदाम्पत्यवर्जनमिति ॥४४॥ (३१३) . मूलार्थ-एक दीवारके अंतरसे दम्पति रहते हों वहां न रहे ॥४४॥ विवेचन-कुडचं-एक दीवार, दाम्पत्यं-स्त्री व पतिका जोडा। यदि एक ही दीवार वीचमें हो व उसके दूसरी ओर पतिपत्नी रहते हों तो ऐसे स्थान पर साधु न रहे । ऐसी जगह पर स्वाध्याय व ध्यान भी नहीं हो सकता । साथ ही ऐसे स्थान पर जब काम
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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