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२२४-: धर्मविन्दु किसीको न दे।
यदि गुरु स्वयं बालक, वृद्ध या बीमारको कुछ दे तो अच्छा है। यदि गुरु किसी काममें लगे हुए हो और खुद न देकर उसीसें दिलावे तो
तदाज्ञया प्रवृत्तिरिति ॥३७॥ (३०६) मूलार्थ-गुरुकी आज्ञासे प्रवृत्ति करना ॥३७॥
विवेचन-गुरुकी आज्ञासे लाई हुई सारी सामग्रीको बांट देना चाहिये । उसमें भी
उचितच्छन्दनमिति ॥३८।। (३०७) मलार्थ-योग्य पुरुपकी निमन्त्रणा करना ॥३७॥
विवेचन-अपने साथ जो बरावर भागमे खा सके ऐसे बाल आदि साधुको अन्नग्रहणकी अभिलापा उत्पन्न करा कर उसको देवे। दूसरेको नहीं देना क्योकि दूसरेको देनेका उसे अधिकार नहीं है। सवको देने के बाद बचे हुए अन्तका
धर्मायोपभोग इति ॥३९॥ (३०८) मूलार्थ-धर्मके लिये उपभोग करना ॥३९॥
विवेचन-शरीर ,धर्मका- साधन है। अतः धर्मके आधारभूत शरीरके लिये धर्म साधनार्थ उस अन्नको खावे । पर शरीर, आकृति या वीर्यवलकी वृद्धिक लिये नहीं । कहा है कि
"वेयण वेयावच्चे, शरयट्ठाए य सयमहाए । तह पाणवत्तियार, छटुं पुण धम्मचिंताए ॥१७९॥"