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________________ ३२२ : धर्मविन्दु ये दीक्षाके योग्य है। इसका विशेष स्वरूप निशीथाध्ययनसे जानना। तथा-उचिते अनुज्ञापनेति ॥३१॥ (३००) मूलार्थ-योग्य वस्तुके ग्रहणमें अनुज्ञा लेना ॥३१॥ विवेचन-जो उपरोक्त पिंड आदि वस्तुएं ग्रहणके योग्य हों, अयोग्य न हो, उनको ग्रहण करनेमें गुरुकी या स्वामीकी अनुमति लेना चाहिये । जैसे 'आप यह वस्तु ग्रहण करने की आज्ञा दीजिये' अन्यथा अदत्तादान होता है। तथा निमित्तोपयोग इति ॥३२॥ (३०१) मूलार्थ-शकुन आदि निमित्तका विचार करना ॥३२॥ निवेचन-उचित आदि आहार ग्रहण करनेमें साधु शुद्धि व अशुद्धिके साधुजनोंमें प्रसिद्ध शकुनका विचार करे। जो निमित्त अशुद्ध लगे तो चत्यवंदन आदि शुभ क्रिया करना चाहिये और निमित्त या शकुनका पुनः विचार करे। ऐसा तीन बार करने पर यदि तीनों बार निमित्तशुद्धि न हो तो साधु उस दिन कुछ भी ग्रहण न करे। यदि कोई दूसरा ले आवे तो उसे खा लेनेमें कोई हानि नहीं। निमित्तशुद्धि होने पर भी अयोग्येऽग्रहणमिति ॥३३॥ (३०२) मूलार्थ-अयोग्य वस्तु ग्रहण न करे ।।३३।। विवेचन-अयोग्य या अनुचित आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये क्योकि वह कोई उपकार नहीं करता। शास्त्रमें आहारग्रहण
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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