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________________ यतिधर्म देशना विधि : ३३५ घर दोनो लाभ हैं। पर अपमान करनेवाला न इस भवमें सत्कार योग्य रहेगा न परभवमें उसे सत्कर्मका फल ही मिलेगा, अंतः 'उसकी क्या गति होंगी ? यह सोचकर उस पर दया करे । खुद पर उपकार किया ऐसी अनुग्रह बुद्धि तथा दया रखे । तथा - अभिनिवेशत्याग इति ||२९|| (२९८) मूलार्थ - मिथ्या आग्रहका योग करे ॥ २९ ॥ विवेचन - कदाग्रह न रखे। अपनी मूलको 'अधिक ज्ञानी द्वारा बताये जाने पर तुरंत मान लेना चाहिये । कोई गीतार्थ पुरुष भूल समझावे उसे न मानना कदाग्रह है इसे छोड़ देना चाहिये । सभी कार्यों में ऐसे कदाग्रहका त्याग करे | तथा - अनुचिताग्रहणमिति ||३०|| (२९९) - मूलार्थ - और अयोग्यको ग्रहण न करे ||३०|| विवेचन - अनुचितस्य - साधुके आचारको बाधा करे या प्रयोग्य वस्तुओका त्याग करे | हानि करे वह अयोग्य - सर्व अशुद्धपिंड (आहार), शय्या, वस्त्रादि धर्मके अन्य उपकरण जो अयोग्य हों उनको ग्रहण न करे, न ले | दीक्षाके अयोग्य बालकवृद्ध तथा नपुंसक आदिको दीक्षा न दे। कहा है कि " पिंड सिज्जं च वत्थं च वउत्थं पायमेव च । अकप्पियं न इच्छिजा, पडिगाहिज्ज कप्पियं ॥ ९७४ ॥ "अट्ठारसपुरिसेसुं, वीसं इत्थीसु दसनपुंसेसु । पव्वावणा अणरिहा, पन्नत्ता वीयरागेहिं" ॥१७५॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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