SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०८ : धर्मबिन्दु भावतः प्रयत्न इति ॥१८॥ (२८७) मूलार्थ - भाव से प्रयत्न करे, (मनसे अप्रीतिका कारण टाले )|| - विवेचन - भावतः - चित्तके परिणामसे, प्रयत्नः- अप्रीति के कारणको हटाने का प्रयास । चित्तके मन के भावसे उस कारणको हटानेका प्रयत्न करे । तात्पर्य यह कि यदि एसी विषम परिस्थिति आ जावे तो कायासे और वचनसे या काया व वचन दोनोसे दूसरोको अप्रीति करनेके कारणको हटानेकी कोशिश करें । स्थान त्याग करे या शांत व मधुर वचनोसे समझावे । दोनोके न होनेपर भावसे दूसरोंकी अप्रीति या उद्वेगको मिटानेका प्रयत्न करे । द्वेष द्वेषसे नष्ट नहीं होता, प्रेमसे मिटता है । भावका फल निश्चित है अतः उत्तम भावसे अप्रीति अवश्य नष्ट होती है। कहा है कि -- 'अभिसन्धेः फलं भिन्नमनुष्ठाने समेऽपि हि । परमोतः स एवेह वारीव कृषिकर्मणि ॥१६७॥ - अनुष्टान समान होने पर भी भावकी भिन्नता से भिन्न भिन्न फलकी प्राप्ति होती है । जैसे खेती में पानी ही परम कारण है उसी 1 प्रकार भाव फलकी प्राप्तिमें प्रधान कारण है । तथा - अशक्ये बहिश्चार इति ||१९|| ( २८८ ) त्याग करे या मूलार्थ - अशक्य आरंभ न करे ॥ १९॥ अनुष्ठानका M विवेचन - अशक्ये - किसी भी कारण से द्रव्य, क्षेत्र, काल व
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy