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३०६ : धर्मशिन्दु "पडिमग्गस्स मयस्स व, नासइ चरणसु अगुणणाप। नो वैयावसायं, सुहोदय नालइ कम्मं ॥१६॥ तथा"जह भमरमहुअरिंगणा, निवयंति कुसुमियम्मि वणसंडे । श्य होइ निवइयव्वं, गोलग्णे कइयवजढेणं ॥१६॥"
-~चरित्रके परिणामसे भ्रष्ट हुए व्यक्तिका और मृत व्यक्तिका चरित्र नष्ट हो जाता है और गणना या अभ्यास बिना शास्त्र विस्मृत हो जाता है पर शुभ उदयवाला वैयावच करनेसे उपजार्जित कर्म नष्ट नहीं होता।
और जैसे पुष्पवाले वनखंडमें भ्रमरीके समुदाय आकर रहते है उस प्रकार लान साधुकी सेवाके लिये पुरुषोको आना चाहिये । अर्थात् आदर सहित सेवा करे। इससे उसके चारित्रपरिणाम भी शुद्ध रहते हैं।
तथा-परोद्वेगाहेतुतेति ॥१७॥ (२८६) । मूलार्थ-और दूसरोंको उद्वेगका कारण न वने ॥१७||
विवेचन-परोदेश-अपने पक्षके या अन्य पक्षके गृहस्थ या अन्य किसीको उद्वेग उपजे, अहेतुता-उसका कारण न बने या ऐसा कार्य न करे।
साधु कोई भी कार्य ऐसा न करे जिससे किसी भी अन्यको उद्वेग उत्पन्न हो । वह ऐसा वचन भी न बोले। उससे शांति उत्पन्न होना चाहिये न कि उद्वेग । कहा है कि
" धम्मत्थमुजपणं, सव्वसापत्तियं न कायव्यं । इय सजमोऽवि सेओ, एत्य य भयवं उदाहरणं ॥१६॥