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________________ यतिधर्म देशना विधि : ३९ 1 ओर होना चाहिये | ऊबे सहारेको पाकर ही छोटे सहारेको छोडना चाहिये । इस तरह विरक्ति उत्पन्न होकर मोक्षमें, अनुरक्ति हो, तब अतिधर्म का पालन सरल हो जाता है। अच्छे उपाय न होनेसे कदाचिव उपेय (प्रतिधर्म) का अभाव हो सकता है । इत्युक्तो यतिः, अधुनाऽस्य धर्ममनुवर्णयिष्यामः । यतिधर्मो द्विविधः, सापेक्षयतिधर्मो निरपेक्षयतिमश्चेति ॥ १॥ (२७०) "... "मूलार्थ - इस प्रकार यतिका स्वरूप कहा अब यतिधर्म कहते हैं | यतिधर्म दो प्रकारका है - १ सापेक्ष यतिधर्म तथा २ निरपेक्ष रतिधर्म ॥ १ ॥ विवेचन- गुरु व गच्छकी सहायता की अपेक्षा ( इच्छा ) रखनेवाला सापेक्ष यति कहलाता है। जो अपेक्षा विना दीक्षा पालन करे- वह निस्पेक्ष | इनके लक्षण गच्छसे निवास करना तथा जिनकल्पादि है या गच्छवास, सापेक्ष है तथा जिनकल्प निरपेक्ष है । तत्र सापेक्षयतिधर्म इति ||२|| (२७१) मूलार्थ-उसमें सापेक्ष यतिधर्मका वर्णन पहले करते हैं ॥२॥ विवेचन - सापेक्ष व निरपेक्ष दो प्रकारके यतिधमौमेसे सापेक्षका वर्णन पहले करते हैं । यथा - गुर्वन्तेवासितेति ॥ ३ ॥ (२७२) मूलार्थ - गुरुके पास शिष्यभावसे रहना ॥३॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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