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________________ २८४ : धर्मविन्दु विवेचन- गुरुजन- माता-पिता आदि, अनुज्ञा- दीक्षा लेनेकी अनुमति । दीक्षा ग्रहण करनेवालेको 'मातापिता, बहन, माई, स्त्री, पुत्र आदिकी समति लेनी चाहिये ऐसी विधि हैं। श्रीमहावीर प्रभुने भी माता-पिताकी जीवितावस्थामें तो दीक्षा ली नहीं पर माईके भी कहने पर और दो वर्ष गृहस्थाश्रममें रहे। . . जब-सवधीवर्ग उस प्रकार आज्ञा मांगने पर भी आज्ञा न दे तो क्या करना चाहिये १ कहते हैं कि तथा- तथोपधायोग इति ॥२४॥ (२५०) सलार्थ-संबंधीवर्ग आजा देवे ऐसी युक्ति करना ॥२३॥ विवेचन-ऐसी युक्तिका उस उस प्रकारसे सर्वथा दूसरेको मालम न पडे इस तरह उपयोग करे। वह किस प्रकार करना सो कहते हैं दुःस्वप्नादिकथनमिति ॥२५॥ (२५१) .. मूलार्थ-दुःस्वप्न आदि कहें ॥२५॥. . . विवेचन-गधा, ऊट, भैस आदि पर बैठनेके स्वप्न.आये इस प्रकार कहे। तथा-विपर्ययलिङ्गसेवेति ॥२६।। (२५२) मूलार्थ और विपरीत चिह्न सेवन करे ॥२६॥ विवेचन-अपने प्रकृतिके विपरीत चिह्नोंका दिखाव करे जिससे माता पिता उसे आज्ञा प्रदान करें। जो माता पितादि विपरीत चिहोंका न जाने क्या करे ? कहते है देवस्तिथा तथा निवेदनमिति ॥२७॥ (२५३)
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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